الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و ما له في وجود النعت من صفة *** و ما له في شهود الذات لذات

تأثر الكل فيه من تأثره *** فنعتهم فيه أحياء و أموات

هم المصانون لا تحصى مناقبهم *** و لا يقوم بهم للموت آفات

قال اللّٰه عز و جل ﴿فَاعْلَمْ أَنَّهُ لاٰ إِلٰهَ إِلاَّ اللّٰهُ﴾ [محمد:19]

[أن لكل ذكر نتيجة]

اعلم أن الهجير هو الذي يلازمه العبد من الذكر كان الذكر ما كان و لكل ذكر نتيجة لا تكون لذكر آخر و إذا عرض الإنسان على نفسه الأذكار الإلهية فلا يقبل منها إلا ما يعطيه استعداده فأول فتح له في الذكر قبوله له ثم لا يزال يواظب عليه مع الأنفاس فلا يخرج منه نفس في يقظة و لا نوم إلا به لاستهتاره فيه و متى لم يكن حال الذاكر على هذا فليس هو بصاحب هجير فمن كان ذكره لا إله إلا اللّٰه فمعقول ذكره الألوهة و هي مرتبة لا تكون إلا لواحد هو مسمى اللّٰه و هذه المرتبة هي التي تنفيها و هي التي تثبتها و لا تنتفي عمن تنتفي عنه بنفي النافي و لا ثبيت لمن تثبت بثبت الثابت المثبت فثبوتها لها و نفيها لها غير ذلك ما هو فلا تنتج للذاكر إلا شهودها و ليس شهودها سوى العلم بها و ليس معلوم هذا العلم الأنسب و النسبة أمر عدمي و الحكم للنسبة و المنسوب و المنسوب إليه و بالمجموع يكون الأثر و الحكم مهما أفردت واحدا من هذه الثلاثة دون الباقي لم يكن أثر و لا صح حكم فلهذا كان الإيجاد بالفردية لا بالأحدية خلافا لمن يقول إنه ما صدر إلا واحد فإنه عن واحد فهو قول صحيح لا إنه واقع ثم جاء الكشف النبوي و الإخبار الإلهي بقوله عن ذات تسمى إلها إذا أراد شيئا فهذان أمران قال له ﴿كُنْ﴾ [البقرة:12] فهذا أمر ثالث و الثلاثة أول الأفراد فظهر التكوين عن الفرد لا عن الأحد و هذه كلها راجعة إلى عين واحدة فإذا ظهر المكون بالتكوين عن ﴿كُنْ﴾ [البقرة:12]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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