الفتوحات المكية

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﴿لاٰ تُدْرِكُهُ الْأَبْصٰارُ﴾ [الأنعام:103] و قال عزَّ وجلَّ لموسى ع ﴿لَنْ تَرٰانِي﴾ [الأعراف:143] و كل مرئي لا يرى الرائي إذا رآه منه إلا قدر منزلته و رتبته فما رآه و ما رأى إلا نفسه و لو لا ذلك ما تفاضلت الرؤية في الرائين إذ لو كان هو المرئي ما اختلفوا لكن لما كان هو مجلى رؤيتهم أنفسهم لذلك وصفوه بأنه يتجلى و أنه يرى و لكن شغل الرائي برؤيته نفسه في مجلى الحق حجبه عن رؤية الحق فلذلك لو لم تبد للرائي صورته أو صورة كون من الأكوان ربما كان يراه فما حجبنا عنه إلا أنفسنا فلو زلنا عنا ما رأيناه لأنه ما كان يبقى ثم بزوالنا من يراه و إن نحن لم نزل فما نرى إلا أنفسنا فيه و صورنا و قدرنا و منزلتنا فعلى كل حال ما رأيناه و قد نتوسع فنقول قد رأيناه و نصدق كما أنه لو قلنا رأينا الإنسان صدقنا في أن تقول رأينا من مضى من الناس و من بقي و من في زماننا من كونهم إنسانا لا من حيث شخصية كل إنسان و لما كان العالم أجمعه و آحاده على صورة حق و رأينا الحق فقد رأينا و صدقنا و إن نظرنا إلى عين التمييز في عين عين لم نصدق و أما «قوله ﷺ في حديث الدجال و دعواه إنه إله فعهد إلينا رسول اللّٰه ﷺ أن أحدنا لا يرى ربه حتى يموت» لأن الغطاء لا ينكشف عن البصر إلا بالموت و البصر من العبد هوية الحق فعينك غطاء على بصر الحق فبصر الحق أدرك الحق و رآه لا أنت فإن اللّٰه ﴿لاٰ تُدْرِكُهُ الْأَبْصٰارُ وَ هُوَ يُدْرِكُ الْأَبْصٰارَ وَ هُوَ اللَّطِيفُ الْخَبِيرُ﴾ [الأنعام:103] و لا ألطف من هوية تكون عين بصر العبد و بصر العبد لا يدرك اللّٰه و ليس في القوة أن يفصل بين البصرين و الخبير علم الذوق فهو العليم خبرة إنه بصر العبد في بصر العبد و كذا هو الأمر في نفسه و إن كان حيا فقد استوى الميت و الحي في كون الحق تعالى بصرهما و ما عندهما شيء فإن اللّٰه لا يحل في شيء و لا يحل فيه شيء إذ



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