الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

هو حال و ليس بمقام و هو مؤد إلى خراب القلوب و في طيه مكر إلهي إلا للعارف فإنه لا يخرج عن مقام الحزن إلا من أقيم في مقام سلب الأوصاف عنه قيل لأبي يزيد كيف أصبحت قال لا صباح لي و لا مساء إنما هي لمن تقيد بالصفة و أنا لا صفة لي و ذلك لما سأله بكيف و هي للحال و هو من أمهات المطالب الأربعة و له من النسب الإلهية ﴿سَنَفْرُغُ لَكُمْ أَيُّهَ الثَّقَلاٰنِ﴾ على قراءة الكسائي و ﴿كُلَّ يَوْمٍ هُوَ فِي شَأْنٍ﴾ [الرحمن:29] و يخفض القسط و يرفعه فهذا مقام الكيف في الإلهيات

[الصباح و المساء لله و هو تعالى المقيد بالصفة]

و أما أبو يزيد فما قصد التمدح بهذا القول و إنما قصد التعريف بحاله فإن الصباح و المساء لله لا له و هو المقيد تعالى بالصفة و العبد العنصري مقيد بالصباح و المساء غير مقيد بالصفة و لهذا نفى الصفة فقال لا صفة لي لهم رزقهم فيها بكرة و عشيا فالصباح و المساء يملكه و لا ملك لأبي يزيد عليهما لأنهما بالصفة يملكان و أبو يزيد لا صفة له فمن لا علم له بالمقام يتخيل أن أبا يزيد تأله في هذا القول و لم يقصد ذلك رضي اللّٰه عنه بل هو أجل من أن يعزي إليه مثل هذا التأويل في قوله هذا فإن قال من يتأول عليه خلاف ما قلناه من أنه تأله في قوله بقوله ضحكت زمانا و بكيت زمانا و أنا اليوم لا أضحك و لا أبكي فاعلم أنه ثم تجلى يضحك و ما رأيت أحدا في هذا الطريق من أهل الضحك إلا واحدا يقال له علي السلاوي سحت معه و صحبته سفرا و حضرا بالأندلس لا يفتر عن الضحك شبه الموله و ما رأيته جرى عليه قط لسان ذنب و أما البكاءون فما رأيت منهم إلا واحدا يوسف المغاور الجلاء سنة ست و ثمانين و خمسمائة بإشبيلية و كان يلازمنا و يعرض أحواله علينا كثير الجزع لا تفتر له دمعة صحبته في الزمان الذي صحبت الضحاك



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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