الفتوحات المكية

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كما قرر في الحكم ﴿فَإِذْ لَمْ يَأْتُوا بِالشُّهَدٰاءِ فَأُولٰئِكَ عِنْدَ اللّٰهِ هُمُ الْكٰاذِبُونَ﴾ [النور:13] فقوله أولئك هل يريد بهذه الإشارة هذه القضية الخاصة أو يريد عموم الحكم في ذلك فجلد الرامي إنما كان لرميه و لكونه ما جاء بأربعة شهداء و قد يكون الشهداء شهداء زور في نفس الأمر و تحصل العقوبة بشهادتهم في المرمي فيقتل و له الأجر التام في الأخرى مع ثبوت الحكم عليه في الدنيا و على شهود الزور و المفتري العقوبة في الأخرى و إن حكم الحق في الدنيا بقوله و شهادة شهود الزور فيه و لهذا «قال رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم إنما أنا بشر و إنكم لتختصمون إلي و لعل أحدكم يكون ألحن بحجته من الآخر فمن قضيت له بحق أخيه فلا يأخذه فإنما أقطع له قطعة من النار» فقد قضى له بما هو حق لأخيه و جعله له حقا مع كونه معاقبا عليه في الآخرة كما يعاقب على الغيبة و النميمة مع كونهما حقا فما كان حق في الشرع تقترون به السعادة و لما كان الشريعة عبارة عن الحكم في المشروع له و التحكم فيه بها كان المشروع له عبدا فالتزم عبوديته لكون الحكم لا يتركه يرفع رأسه بنفسه فما له من حركة و لا سكون إلا و للشرع في ذلك حكم عليه بما يراه فلذلك جعلت الطائفة الشريعة التزام العبودية فإن العبد محكوم عليه أبدا و أما قولهم بنسبة الفعل إليك فإنك إن لم تفعل ما يريده السيد منك و إلا فما وجب عليك الأخذ به و لذلك رفع القلم عمن لا عقل له و يكفي هذا القدر في علم الشريعة ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب الثالث و الستون و مائتان في معرفة الحقيقة»

و هي سلب آثار أوصافك عنك بأوصافه أنه الفاعل بك فيك منك لا أنت ﴿مٰا مِنْ دَابَّةٍ إِلاّٰ هُوَ آخِذٌ بِنٰاصِيَتِهٰا﴾

إن الحقيقة تعطي واحدا أبدا *** و العقل بالفكر ينفي الواحد الأحدا

فالذات ليس لها ثان فيشفعها *** و الكون يطلب من آثاره العددا



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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