الفتوحات المكية

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المعنى أن يفكروا في ذلك فيعلموا أنها لم تقم بأنفسها و إنما أقامها غيرها و هذا النظر لا يلزم منه وجود الأعيان مثل النظر الذي تقدم و إنما الإنسان كلف أن ينظر بفكره في ذلك لا بعينه و من الملكوت ما هو غيب و ما هو شهادة فما أمرنا قط بحرف في إلا في المخلوقات لا في اللّٰه لنستدل بذلك عليه أنه لا يشبهها إذ لو أشبهها لجاز عليه ما يجوز عليها من حيث ما أشبهها و كان يؤدي ذلك إلى أحد محظورين إما أن يشبهها من جميع الوجوه و هو محال لما ذكرناه أو يشبهها من بعض الوجوه و لا يشبهها من بعض الوجوه فتكون ذاته مركبة من أمرين و التركيب في ذات الحق محال فالتشبيه محال و الذي يليق بهذا الباب من الكلام يتعذر إيراده مجموعا في باب واحد لما يسبق إلى الأوهام الضعيفة من ذلك لما فيه من الغموض و لكن جعلناه مبددا في أبواب هذا الكتاب فاجعل بالك منه في أبواب الكتاب تعثر على مجموع هذا الباب و لا سيما حيثما وقع لك مسألة تجل إلهي فهناك قف و انظر تجد ما ذكرته لك مما يليق بهذا الباب و القرآن مشحون بالكيفية فإن الكيفيات أحوال و الأحوال منها ذاتية للمكيف و منها غير ذاتية و الذاتية حكمها حكم المكيف سواء كان المكيف يستدعي مكيفا في كيفيته أو كان لا يستدعي مكيفا لتكييفه بل كيفيته عين ذاته و ذاته لا تستدعي غيرها لأنها لنفسها هي فكيفيته كذلك لأنها عينه لا غيره و لا زائد عليه فافهم ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

(الباب التاسع و العشرون)
في معرفة سر سلمان الذي ألحقه بأهل البيت و الأقطاب الذين ورثه منهم و معرفة أسرارهم

العبد مرتبط بالرب ليس له *** عنه انفصال يرى فعلا و تقديرا

و الابن أنزل منه في العلى درجا *** قد حرر الشرع فيه العلم تحريرا

فالابن ينظر في أموال والده *** إذ كان وارثه شحا و تقتيرا

و الابن يطمع في تحصيل رتبته *** و أن يراه مع الأموات مقبورا

و العبد قيمته من مال سيده *** إليه يرجع مختارا و مجبورا

و العبد مقداره في جاه سيده *** فلا يزال بستر العز مستورا



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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