الفتوحات المكية

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﴿لَنْ تَرٰانِي﴾ [الأعراف:143] اعلم أن رؤية المرئي تعطي العلم به و يعلم الرائي أنه رأى أمرا ما و قد أحاط علما بما رآه و رأينا الذي يرى الحق لا تنضبط له رؤيته إياه و ما لا ينضبط لا يقال فيه إن الذي رآه عرف أنه رآه إذ لو رآه لعلمه و قد علم بتنوع الصور عليه في ترداد رؤيته مع أحدية العين في نفس الأمر فما رآه حقيقة فلا يعلم الحق إلا من يعلم أنه ما رآه ﴿قٰالَ رَبِّ أَرِنِي أَنْظُرْ إِلَيْكَ﴾ [الأعراف:143] بعيني فإن الرؤية بأداة إلى رؤية العين ﴿قٰالَ﴾ [البقرة:11] له ﴿لَنْ تَرٰانِي﴾ [الأعراف:143] بعينك لأن المقصود من الرؤية حصول العلم بالمرئي و لا تزال ترى في كل رؤية خلاف ما تراه في الرؤية التي تقدمت فلا يحصل لك علم برؤية أصلا في المرئي فقال له ﴿لَنْ تَرٰانِي﴾ [الأعراف:143] فإني لا أقبل من حيث أنا التنوع و أنت ما ترى إلا متنوعا و أنت ما تنوعت فما رأيتني و لا رأيت نفسك و قد رأيت فلا بد أن تقول رأيت الحق و أنت ما رأيتني فلم تصدق أو تقول رأيت نفسي و ما رأيت نفسك فلم تصدق و ما ثم إلا أنت و الحق و لا واحد من هذين رأيت و أنت تعلم أنك رأيت فما هذا الذي رأيت فلن تراني بعينك فهل إذا كان الحق بصرك هل يمكن أن تصدق في أنك رأيته إذا رأيت أو الحال واحدة في بصره إذا كان في مادة عينك أو بصرك و هذا مشهد من مشاهد الحيرة في اللّٰه تعالى و لا تتعجب من طلب موسى عليه السّلام رؤية ربه فإنه ثم مقام يقتضي طلب الرؤية و الإنسان بحكم الوقت فإن الوقت حكمه مطلق حقا و خلقا و هذا القدر كاف في هذه المنازلة فإن مجالها لا يتسع لا كثر من هذه العبارة ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب الثالث و الأربعون و أربعمائة في معرفة منازلة واجب الكشوف العرفاني»

إن المعارف تعطي واحدا أبدا *** فواجب الكشف عرفان بآحاد

فإن تعدى إلى ثان فإن له *** من نفسه و له الإسعاد في النادي

تساعد العلم وقتا إذ يساعدها *** العلم وقتا فإسعاد بإسعاد



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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