الفتوحات المكية

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[الجانب الإلهي في مقام الورع]

فأقول إن الورع له مقام و لمقامه حال و هو مشروط كما ذكرنا و ينتهي بانتهاء التكليف فأما مقام الورع فهو التقييد بصفة التنزيه لأن حقيقته الاجتناب و هو إلا هي و صاحبه مجهول لا يعرف و حاله أن يكون صاحب علامة في نفسه أو في المتورع فيه و الاسم اللّٰه ينظر إليه دائما فينظر إليه في عالم ملكه من حيث ما هو مسلم فيؤثر في أفعاله و كلما ظهر على جوارحه فيجتنب كل ما يقدح في حصول هذا المقام و ينظر إليه في عالم جبروته من حيث ما هو مؤمن فيؤثر فيه فلا تكذب له رؤيا جملة واحدة و يجتنب في خياله كما يجتنب في ظاهره لأن الخيال تابع للحس و لهذا إذا احتلم المريد برؤيا عاقبه شيخه أ لا ترى أنه ما احتلم نبي قط و لا ينبغي له ذلك و لا العارفون بالله ذوقا فإن الاحتلام برؤيا في النوم أو في التصور في اليقظة فإنما هو من بقية طبيعية في خياله و هو كذب فإنه يظن أنه في الحس الظاهر و قد قلنا إن الورع يجتنب الكذب فلو اجتنبه في الحس لأثر في خياله فإذا رأيتم صاحب مقام الورع يغتسل من نوم فذلك لماء خرج منه و هو نائم لضعف الأعضاء الباطنة و هو مرض طرأ في مزاجه لا عن رؤيا أصلا لا في حلال و لا في حرام و أما إذا نظر إليه في عالم ملكوته فأثره فيه اجتناب التأويل فيما يرد عليه من المخاطبات الإلهية و التجلي الإلهي إذا كان كل ذلك في السور فلا يعبر ما رآه و لا يتأول ما خوطب به فإنه كله إلهي و كل إلهي مجهول كما أن الورعين مجهولون لأنه اجتناب و ترك و لا يتميز الأمر من خارج إلا بالفعل فإن نطق الورع بما ينبغي أن يجتنب ذلك الأمر و لأجله اجتنبه فقد أخل بمقام الورع فإن مقامه أن يكون مجهولا و قد عرف بأنه ورع فزال عنه حكم مقامه بل ما كان قط في مقام الورع و ورعه في اجتنابه معلول فلا يسلم له

[الجانب الرباني و الرحمانى في مقام الورع]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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