الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 5741 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

فمعنى ﴿يَنٰالُهُ التَّقْوىٰ﴾ [الحج:37] أنه يتناولها منك ليلبسك إياها بيده تشريفا لك حيث خلع عليك بغير واسطة إذ لبسها غير المتقي من غير يد الحق و سواء كانت الخلعة من رفيع الثياب أو دنيئها فذلك راجع إليك فإنه ما ينال منك إلا ما أعطيته و إن جمع ذلك التقوى فإنه لا يأخذ شيئا سبحانه من غير المتقي فلهذا وصف نفسه بأن التقوى تناله من العباد و إنما وصف الحق سبحانه بأن التقوى تصيبه و اللحوم و الدماء لا تصيبه لما كانت الإصابة بحكم الاتفاق لا بحكم القصد أضاف النيل إلى المخلوق لأنه يتعالى أن يعلم فيقصد من حيث يعلم و لكن إنما يصاب بحكم الاتفاق مصادفة و الحق منزه أن يعلم الأشياء بحكم الإصابة فيكون علمه للأشياء اتفاقا فإذا ناله التقوى من المتقي و خدم بين يديه و جعل ذاته بين يديه مستسلما لما يفعله فيه فيخلع سبحانه عند ذلك من العلم على المتقي و من شأن هذا العلم أن يحصل من اللّٰه تعالى للعبد بكل وجه من وجوه العطاء حتى يأخذ كل آخذ منه بنصيب فمنهم من يأخذه من يد الكرم و منهم من يأخذه من يد الجود و منهم من يأخذه من يد السخاء و منهم من يأخذه من يد المنة و الطول إلا الإيثار فإنه ليس له يد في هذه الحضرة الإلهية إذ كان لا يعطي عن حاجة لكن الأسماء الإلهية لما كانت تريد ظهور أعيانها في وجود الكون و أحكامها يتخيل أن إعطاءها من حاجة إلى الأخذ عنها فتتنسم من هذا رائحة الإيثار و ليس بصحيح و إنما وقع في ذلك طائفة قد أعمى اللّٰه بصيرتهم و لذلك العارفون اتصفوا بأصناف العطاء في التخلق بالأسماء لا بالإيثار فإنهم في ذلك أمناء لا يؤثرون إذ لا يتصور الإيثار الحقيقي لا المجازي عندهم و العارف لا يقول أعطيتكم و إنما يقول أعطيتك لأنه لا يشترك اثنان في عطاء قط فلهذا يفرد و لا يجمع فالجمع في ذلك توسع في الخطاب و الحقيقة ما ذكرناه و للكلام في هذا المنزل مجال رحب لا يسعه الوقت ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

منازل الحوض و أسراره *** مراتب العلم و أنواره

و هو من العلم الذي لم يزل *** صفاؤه شيب بأكداره



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!