الفتوحات المكية

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﴿يَمُنُّونَ عَلَيْكَ أَنْ أَسْلَمُوا﴾ [الحجرات:17] فإن منوا بذلك وبخوا و نبهوا بقوله ﴿بَلِ اللّٰهُ يَمُنُّ عَلَيْكُمْ أَنْ هَدٰاكُمْ لِلْإِيمٰانِ إِنْ كُنْتُمْ صٰادِقِينَ﴾ [الحجرات:17] في دعواكم إنكم مؤمنون فعراهم من هذه الصفة أن تكون لهم كسبا

[ينبغي للعاقل أن لا يأمن مكر اللّٰه في إنعامه]

فينبغي للعاقل أن لا يأمن مكر اللّٰه في إنعامه فإن المكر فيه أخفى منه في البلاء و أدنى المكر فيه إن يرى نفسه مستحقا لتلك النعمة و أنها من أجله خلقت فإن اللّٰه ليس بمحتاج إليها فهي لي بحكم الاستحقاق هذا أدنى المكر الذي تعطيه المعرفة و يسمى صاحبه عارفا في العامة و هو في العارفين جاهل إذ قد بينا فيما قبل إن الأشياء إنما خلقت له تعالى لتسبح بحمده و كان انتفاعنا بها بحكم التبعية لا بالقصد الأول ففطر العالم كله على تسبيحه بحمده و عبادته و دعا الثقلين إلى ذلك و عرف أن لذلك خلقهم لا لأنفسهم و لا لشيء من المخلوقات مع ما في الوجود من وقوع الانتفاع بها بعضها من بعض و «قال تعالى في الحديث الغريب الصحيح من عمل عملا أشرك فيه غيري فأنا منه بريء و هو للذي أشرك» فطلب من عباده إخلاص العمل له فمنهم من أخلصه له جملة واحدة فما أشرك في العمل بحكم القصد فما قصد به إلا اللّٰه و لا أشرك في العمل نفسه بأنه الذي عمل بل عمله خلق لله فالأول عموم و الثاني خصوص و هو غاية الإخلاص و لا يصح إخلاص إلا مع عمل أعني في عمل فإنه لا بد من شيء يكون مستخلصا بفتح اللام و حينئذ يجد الإخلاص محلا يكون لذلك العمل يسمى به العمل خالصا و العامل مخلصا و اللّٰه الموفق لذلك

(الباب الخامس و الثلاثون و مائة في معرفة ترك الإخلاص و أسراره)

من أخلص الدين فقد أشركا *** و قيد المطلق من وصفه

من يجهل الأمر فذاك الذي *** يدرك ذات المسك من عرفه



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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