الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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(وفق مخطوطة قونية)

فمن ترك الرجاء فقد ترك نصف الايمان فالإيمان نصفان نصف خوف و نصف رجاء و كلاهما متعلقهما عدم فإذا حصل العلم حصل الوجود و زال العدم و أزال العلم حكم الايمان لأنه شهد ما آمن به فصار صاحب علم و الايمان تقليد و التقليد يناقض العلم إلا أن يكون المخبر معصوما عند المؤمن و في نفسه من الكذب و ليس بينك و بينه واسطة في إخباره فإن الدليل الذي حكم لك بصدقه و عصمته عن الخطاء و الكذب فكنت فيه على بصيرة و هي العلم ينسحب لك على ما يخبرك به عن اللّٰه فيكون عندك خبره علما لا تقليدا و هذا لا يكون اليوم إلا عند أهل الكشف و الوجود خاصة و أما عند أهل النقل فلا سبيل فالصحابة الذين سمعوا شفاها من الرسول ما لا يحتمله التأويل بما هو نص في الباب لا فرق بينهم و بين أهل الكشف و الوجود فهم علماء غير مقلدين ما داموا ذاكرين لدليلهم فإن غابوا عن الدليل في وقت الإخبار فهم مقلدون مع ارتفاع الوسائط

[اجعل دليلك على الأشياء ربك تكن صاحب علم محقق]

فاجعل دليلك ربك على الأشياء فلا تغفل عنه فإنك إذا كنت بهذه المثابة كنت صاحب علم و هو أرفع ما يكون من عند اللّٰه و لهذا أمر نبيه ﷺ بالزيادة منه دون غيره من الصفات فمن علم الماضي و الحال و المستأنف لم يبق له عدم فلم يبق له متعلق رجاء فلم يبق له رجاء

من إنما أجزع مما أتقى *** فإذا حل فما لي و الجزع

و كذا أطمع فيما أبتغي *** فإذا فات فما لي و الطمع

فهذان البيتان جمعا ترك الرجاء و الخوف بحصول المخوف وقوعه و فوت المرجو حصوله إلى و هذا و إن كان صحيحا في الرجاء فلا يكون هذا في رجاء المقام فإنه ما له خوف فوت الماضي و إنما له خوف فوت المستأنف لفوت سببه الذي مضى

(الباب الرابع و مائة في مقام الحزن)



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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