الفتوحات المكية

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و ما قال حياة ربكم و لهذا قلنا بل هو عين الحق ﴿قٰالُوا الْحَقَّ﴾ [ سبإ:23] لما تبين لهم أنه الحق ﴿وَ هُوَ الْعَلِيُّ الْكَبِيرُ﴾ [ سبإ:23] عن الحلول و المحل و لكن نسب و إضافات و شهود حقائق فبالوجه الذي يقول فيه إنه سمع العبد به بعينه يقول إنه حياة العبد و علمه و جميع صفاته و قواه و هي نسب لا أعيان فهو الحي العالم السميع إلى غير ذلك فالعين واحدة و ليس إلا ما ظهر فيه عين ما ظهر فالعبد المتحقق بالحق ينكشف له فيتبين أنه الحق ﴿أَلاٰ إِنَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ مُحِيطٌ﴾ [فصلت:54] فالحياة التي كان يدعى فيها قبل دخوله إلى حضرة الحق لم تبق عليه في هذا الشهود أصلا و ضد الحياة الموت فإن اشتبهت عليه الحضرة و تخيل أنه دخل حضرة الحق و ما زالت عنه حياته أنها له كما تخيل صاف في عرش إبليس على البحر أنه العرش الذي استوى عليه الرحمن تعالى و جل فقال له رسول اللّٰه ﷺ ذلك عرش إبليس كذلك صاحب هذا الشهود إذا رأى أن حياته باقية عليه منسوبة إليه فإن الحق قد مات في حقه و هو يدعي صحبة الحق فالحق يعزيه في موت صاحبه فإنه عنه في هذا الشهود أجنبي فهو الميت على الحقيقة فمن لم يصحبه الحق في جميع صفاته فما هو حق فإن الحق لا يتبعض فإذا كان كان و إذا لم يكن كان في نفس الأمر و لا نعرفه فكن عالما و لا تكن جاهلا و لهذا قيل ما اتخذ اللّٰه وليا جاهلا قط و إن اللّٰه يتولى بالفعل تعليم أوليائه مما يشهدهم إياه في تجلياته و مثل «قوله ﷺ إن اللّٰه لا يمل حتى تملوا» فمللكم هو في الإشارة ملل الحق و لما كان الحق في حق كل أحد عين اعتقاده فيه و علمه به ثم غفل عن اعتقاده الذي هو ربه فقد ذهب عن محل عقده ففقده و هو كان صاحبه فعزاه الحق فيه من حيث ما هو لنفسه في الحق الذي كان متعلق عقده قرب كل إنسان على صورة عقده فيه و الحق الذي هو حق في نفس الأمر وراء كل معتقد لا بل هو صورة كل معتقد ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب السادس و التسعون و ثلاثمائة في معرفة منازلة من جمع المعارف و العلوم
حجبته عني و هو من الحضرة المحمدية»



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