الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

لكل منع سبب ظاهر *** أو باطن لا بد من كونه

فمانع يظهر من غيره *** و مانع يظهر من عينه

و قد يكون المنع من قربه *** و قد يكون المنع من بينه

فمن وجود العقل عن فكره *** تجد وجود الحق في صونه

فزينة الإنسان من نفسه *** إدراكه الزينة في شينه

[في كل زمان لا بد من وجود قطب]

اعلم وفقنا اللّٰه و إياك أن الكتب الموضوعة لا تبرح إلى أن يرث اللّٰه ﴿اَلْأَرْضَ وَ مَنْ عَلَيْهٰا﴾ [مريم:40] و في كل زمان لا بد من وقوف أهل ذلك الزمان عليها و لا بد في كل زمان من وجود قطب عليه يكون مدار ذلك الزمان فإذا سميناه و عيناه قد يكون أهل زمانه يعرفونه بالاسم و العين و لا يعرفون رتبته فإن الولاية أخفاها اللّٰه في خلقه و ربما لا يكون عندهم في نفوسهم ذلك القطب بتلك المنزلة التي هو عليها في نفس الأمر فإذا سمعوا في كتابي هذا بذكره أداهم إلى الوقوع فيه فينزع اللّٰه نور الايمان من قلوبهم كما قال رويم و أكون أنا السبب في مقت اللّٰه إياهم فتركت ذلك شفقة مني على أمة محمد ﷺ و ما أنا في قلوب الناس و لا في نفس الأمر و لا عند نفسي بمنزلة الرسول يجب الايمان بي عليهم و بما جئت به و لا كلفني اللّٰه إظهار مثل هذا فأكون عاصيا بتركه و لا هذه المسألة بمنزلة قوله تعالى ﴿وَ قُلِ الْحَقُّ مِنْ رَبِّكُمْ فَمَنْ شٰاءَ فَلْيُؤْمِنْ وَ مَنْ شٰاءَ فَلْيَكْفُرْ﴾ [الكهف:29] و بسط الرحمة على الكافة أولى من اختصاصها في حقنا و قد فعل مثل هذا القشيري في رسالته حيث ذكر أولئك الرجال في أول الرسالة و ما ذكر فيهم الحلاج للخلاف الذي وقع فيه حتى لا تتطرق التهمة لمن وقع ذكره من الرجال في رسالته ثم إنه ساق عقيدته في التوحيد في صدر الرسالة ليزيل بذلك ما في نفس بعض الناس منه من سوء الطوية ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب السادس و الخمسون و خمسمائة في معرفة حال قطب كان منزله

﴿تَبٰارَكَ الَّذِي بِيَدِهِ الْمُلْكُ و هو من أشياخنا درج سنة تسع و ثمانين و خمسمائة رحمه اللّٰه»﴾

تبارك الملك و للإمام *** بالكشف و الحال و المقام

و هو الذي لا يزال ملكا *** في كل حال على الدوام

له الكمال الذي تراه *** في كونه أعين الأنام



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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