الفتوحات المكية

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﴿لاٰ تَفْرَحْ إِنَّ اللّٰهَ لاٰ يُحِبُّ الْفَرِحِينَ﴾ [القصص:76] فهل أصابوا في هذا الإطلاق و لم يقيدوا أم لا فذلك أمر آخر فإن كان اتكالهم في ذلك على قرينة الحال فقد قيدوا لأن قرائن الأحوال تقيد و إن اقتضت الإطلاق في بعض المواطن فهو تقييد إطلاق لا تقييد ينتج لصاحب هذا الذكر الفرح بفضل اللّٰه و برحمته فينتج له نقيض ذكره فتراه أبد آخرين القلب ما دام في الدنيا إلى الموت و إن فتح له ما يقع له به الفرح لو كان في غير هذا الهجير و ذلك إذا فتح له فيما يوجب الفرح يرى ما عليه من الشكر لله فيما فتح له فيه فيعظم حزنه أشد مما كان فيه قبل الفتح كما فعل رسول اللّٰه ﷺ حين بشر بأن اللّٰه غفر له ما تقدم من ذنبه و ما تأخر : فزاد في العمل شكر اللّٰه فقام حتى تورمت قدماه و قال أ فلا أكون عبدا شكورا و من كان في مقام يريد أن يوفيه حقه لا يمكن له الفرح إلا بعد أن لا يبقى عليه من حقه شيء و لا يزال هذا الحق المعين على المكلف المبشر ﴿بِفَضْلِ اللّٰهِ وَ بِرَحْمَتِهِ﴾ [يونس:58] عليه إلى آخر نفس يكون عليه في الدنيا فلا يفرح إلا عند خروجه منها فإنه لا يسقط عنه التكليف إلا بعد رحلته من دار التكليف و هي الدار الدنيا فمن ادعى هذا الذكر و رؤي عليه الفرح فما لهذا الذكر فيه أثر و ليس من أهله و لقد رأى بعض الصالحين رجلا أو شخصا يفرح و يضحك فقال له يا هذا إن كنت ممن بشره اللّٰه فما هذه حالة الشاكرين لما بشرهم اللّٰه به و إن كنت ممن لم يبشره اللّٰه فما هذه حالة الخائفين فأنكر عليه حالة الفرح في الوجهين و هذا عين ما قلناه في هذا الهجير و هذه المحبة المنفية محبة خاصة لا كل محبة فإن المحبة الإلهية لها وجوه كثيرة و لا يلزم من انتفاء وجه منها انتفاء الوجوه كلها



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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