الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

[العبد مع الحق في حال عبوديته كالظل مع الشخص في مقابلة السراج]

فالعبد مع الحق في حال عبوديته كالظل مع الشخص في مقابلة السراج كلما قرب من السراج عظم الظل و لا قرب من اللّٰه إلا بما هو لك وصف أخص لا له و كلما بعد من السراج صغر الظل فإنه ما يبعدك عن الحق إلا خروجك عن صفتك التي تستحقها و طمعك في صفته ﴿كَذٰلِكَ يَطْبَعُ اللّٰهُ عَلىٰ كُلِّ قَلْبِ مُتَكَبِّرٍ جَبّٰارٍ﴾ [غافر:35] و هما صفتان لله تعالى و ﴿ذُقْ إِنَّكَ أَنْتَ الْعَزِيزُ الْكَرِيمُ﴾ [الدخان:49] و هذا «قوله ﷺ أعوذ بك منك»

[دخول العبد على الحق بنعته الأخص و استقبال الحق له بنعته الأخص]

و هذا المقام لا يبقى لك صفة تخص الحق و ينفرد بها و لا يمكن حصول اشتراك فيها من النعوت الثبوتية لا النعوت السلبية و الإضافية إلا و يعلمها صاحب هذا المقام خاصة و لكن عز صاحبه ذوقا فإن الوصف الأخص منك إذا تحققت به و انفردت و دخلت به على الحق لم يقابلك إلا بالنعت الأخص به الذي لا قدم لك فيه و إذا جئت بالنعت المشترك تجلى لك بالنعت المشترك فتعرف سر نسبته إليك من نسبته إليه و هو علم غريب قل أن تجد له ذائقا و مع هذا فهو دون الأول الذي هو الأخص بك فاعلم ذلك فتحقق بهذا المقام فهذا أعطاك مقام العبودية

[الظاهر ينصبغ بحقيقة المظهر كان ما كان]

و أما مقام العبودة فلا تدري ما يحصل لك فيه من العلم به فإنك تنفي النسب فيه عنه تعالى و عن الكون و هو مقام عزيز جدا لأنه لا يصح عند الطائفة أن يبقى الكون مع إمكانه بغير نسب و هو بالذات واجب لغيره و التنبيه على هذا المقام وصف الظاهر في المظهر بنعت العبد فإن الظاهر ينصبغ بحقيقة المظهر كان ما كان فلا ينتسب الظاهر إلى العبودية فإنه ليس وراءها نزول و المنتسب لا بد أن يكون أنزل في المرتبة من المنسوب إليه و لا ينتسب الظاهر إلا إليه فإن الأثر الذي أعطاه عين المظهر ليس غير الظاهر و ليس وراء اللّٰه مرمى و الشيء لا ينسب إلى نفسه فلهذا جاءت العبودة بغير ياء النسب يقال رجل بين العبودية و العبودة أي ذاته ظاهرة و نسبه مجهول فلا ينسب فإنه ما ثم إلى من فهو عبد لا عبد

(الباب الأحد و الثلاثون و مائة في مقام ترك العبودية)

إن انتسبت إلى معلول أنت له *** و أنت لله لا للخلق فازدجروا



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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