الفتوحات المكية

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﴿عَلىٰ مَنْ يَشٰاءُ مِنْ عِبٰادِهِ﴾ [البقرة:90] فعلم أنه ممن شاء من عباده فقابل الدرجات بالدرجات فإذا هي عينها لا غيرها و رأى تلك الدرجات في العالم كله و أنه فيها فأخذ يظهر للعالم بها و العالم لا يشعر فيخاطب كل إنسان من حيث هو من درجته التي له فيقول هذا معي و على هذا مذهبي و اعتقادي فلا ينكره أحد من العالم و لا ينكر هو أحدا من العالم مع لزوم الأدب الإلهي و لا يلزم الأدب إلا صاحب المقام و مقام أن لا مقام مقام و أما صاحب الحال فقد يطهر عليه من هذا لنقصه و نزوله عن صاحب المقام ما يؤدي الناظر فيه إلى معرفته به فالكامل ينصبغ بكل صورة في العالم و يتستر بما يقدر عليه فإن كان ثم من رآه في صورة قد اختلفت عليه لأجل اختلاف الخلق اعتقد فيه عدم التقييد الذي هو عليه هذا الناظر فقال بكفره و زندقته و ما علم من أين أتى عليه فينبغي لصاحب هذا المقام أن لا يظهر لشخصين في صورة واحدة أبدا كما لا يتجلى الحق لشخصين في صورة واحدة أبدا فإن الدرجات هي الدرجات فإن كفره و زندقه من لم ير اختلاف الصور عليه فذلك جهل منه و حسد فيكون ما ينسبه إليه على صورة ما ينسبه إلى اللّٰه جل و علا من الصاحبة و الولد و الشريك و ما نزه الحق نفسه عنه فهذا لا يؤثر في صاحب هذا المقام بل هو على كماله و ذلك الواقع فيه من المفترين فإنه ما حكم عليه إلا بما شاهده منه و يقول بلسانه عنه ما يعلم خلافه في نفسه ظلما و علوا كما قال تعالى ﴿وَ جَحَدُوا بِهٰا وَ اسْتَيْقَنَتْهٰا أَنْفُسُهُمْ ظُلْماً وَ عُلُوًّا فَانْظُرْ كَيْفَ كٰانَ عٰاقِبَةُ الْمُفْسِدِينَ﴾ [النمل:14] و كذلك تكون عاقبة هذا فدرجات الحق ما هو العالم عليه و صاحب هذا المقام قد تميز فيها حين ميزها فهو الإله الظاهر و الباطن و الأول في الوجود و الآخر في الشهود : و اللّٰه



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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