الفتوحات المكية

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﴿بِكُلِّ شَيْءٍ مُحِيطٌ﴾ [النساء:126] و المحاط فلا يكون محيطا لمن أحاط به و أما الرحمة فإنه علم أن المحدثات لا تبقي لسبحات وجهه بل تحترق بها فسترهم رحمة بهم لا بقاء عينهم ثم إن اللّٰه أيضا أسدل للعالمين ستور نتائج أعمالهم بقوله إن عمل كذا ينتج لعامله كذا فيقف العامل مع النتيجة لا رغبة فيها إذا كان من أهل الخصوص و إنما يرغب من يرغب فيها ليصحح بها و بشهودها عمله الذي كلفه به سيده و أما العامة فلرغبتها فيها و تعشقها بها فلما جعل اللّٰه علامات تدل على صحة الأعمال في العاملين رغبت الخاصة في مشاهدة نتائج الأعمال ليكونوا على بصيرة في أمورهم إذ كان مطلوبهم و همهم القيام بما أشهدهم عليه من الحقوق و ليست الحقوق سوى الأعمال التي كلفهم و قد يسدل الستر خوفا من نفوذ العين و إصابته و يدخل في هذا سدل الحجب من أجل السبحات الوجهية المحرقة أعيان الممكنات و أما في حق بعض الناس ممن ليست له تلك القدم في العلم بالله فلا يعلم أن لله تجليا في كل نفس ما هو على صورة التجلي الأول فلما غاب عنه هذا الإدراك ربما استصحب تجليا و دام عليه شهوده و الطبع يطلبه بحقيقته فيدركه الملل و الملل في هذا المقام عدم احترام بالجناب الإلهي فإنهم ﴿فِي لَبْسٍ مِنْ خَلْقٍ جَدِيدٍ﴾ [ق:15] مع الأنفاس و هم يتخيلون أن الأمر ما تغير فسدل الستر من أجل الملل الذي يؤدي إلى عدم الاحترام لما حرمهم اللّٰه العلم بهم و بالله فهم يتخيلون أنهم هم في كل نفس و هم هم من حيث جوهريتهم لا من حيث ما يتصفون به و لا تقل إن الأمر ليس كذلك هذا من الأسرار الإلهية التي قد حجب اللّٰه عن إدراكها خلقا كثيرا من أهل اللّٰه أرباب فتوح المكاشفة فكيف حال غيرهم فيها فالستر لا بد منه إذ لا بد منك فافهم ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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