الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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يأمره بإتيان ما حجر عليه الإتيان به ف‌ ﴿إِنَّ اللّٰهَ لاٰ يَأْمُرُ بِالْفَحْشٰاءِ﴾ [الأعراف:28] فأسدل الستور دون أهل الحجر هذا حكمه في العامة و أما في الخاصة فقول القائل

فأنت حجاب القلب عن سر غيبه *** و لولاك لم يطبع عليه ختامه

فجعلك عين ستره عليك و لو لا هذا الستر ما طلبت الزيادة من العلم به فأنت المتكلم و المخاطب من خلف ستر الصورة التي كلمك منها فانظر في بشريتك تجدها عين سترك الذي كلمك من ورائه فإنه يقول ﴿وَ مٰا كٰانَ لِبَشَرٍ أَنْ يُكَلِّمَهُ اللّٰهُ إِلاّٰ وَحْياً أَوْ مِنْ وَرٰاءِ حِجٰابٍ﴾ [الشورى:51] و قد يكلمك منك فأنت حجاب نفسك عنك و ستره عليك و من المحال أن تزول عن كونك بشرا فإنك بشر لذاتك و لو غبت عنك أو فنيت بحال يطرأ عليك فبشريتك قائمة العين فالستر مسدل فلا تقع العين إلا على ستر لأنها لا تقع إلا على صورة و هذا لما تقتضيه الألوهية من الغيرة و الرحمة فأما الغيرة فإنه يغار أن يدركه غير فيكون محاطا لمن أدركه و هو ﴿بِكُلِّ شَيْءٍ مُحِيطٌ﴾ [النساء:126] و المحاط فلا يكون محيطا لمن أحاط به و أما الرحمة فإنه علم أن المحدثات لا تبقي لسبحات وجهه بل تحترق بها فسترهم رحمة بهم لا بقاء عينهم ثم إن اللّٰه أيضا أسدل للعالمين ستور نتائج أعمالهم بقوله إن عمل كذا ينتج لعامله كذا فيقف العامل مع النتيجة لا رغبة فيها إذا كان من أهل الخصوص و إنما يرغب من يرغب فيها ليصحح بها و بشهودها عمله الذي كلفه به سيده و أما العامة فلرغبتها فيها و تعشقها بها فلما جعل اللّٰه علامات تدل على صحة الأعمال في العاملين رغبت الخاصة في مشاهدة نتائج الأعمال ليكونوا على بصيرة في أمورهم إذ كان مطلوبهم و همهم القيام بما أشهدهم عليه من الحقوق و ليست الحقوق سوى الأعمال التي كلفهم و قد يسدل الستر خوفا من نفوذ العين و إصابته و يدخل في هذا سدل الحجب من أجل السبحات الوجهية المحرقة أعيان الممكنات و أما في حق بعض الناس ممن ليست له تلك القدم في العلم بالله فلا يعلم أن لله تجليا في كل نفس ما هو على صورة التجلي الأول فلما غاب عنه هذا الإدراك ربما استصحب تجليا و دام عليه شهوده و الطبع يطلبه بحقيقته فيدركه الملل و الملل في هذا المقام عدم احترام بالجناب الإلهي فإنهم ﴿فِي لَبْسٍ مِنْ خَلْقٍ جَدِيدٍ﴾ [ق:15] مع الأنفاس و هم يتخيلون أن الأمر ما تغير فسدل الستر من أجل الملل الذي يؤدي إلى عدم الاحترام لما حرمهم اللّٰه العلم بهم و بالله فهم يتخيلون أنهم هم في كل نفس و هم هم من حيث جوهريتهم لا من حيث ما يتصفون به و لا تقل إن الأمر ليس كذلك هذا من الأسرار الإلهية التي قد حجب اللّٰه عن إدراكها خلقا كثيرا من أهل اللّٰه أرباب فتوح المكاشفة فكيف حال غيرهم فيها فالستر لا بد منه إذ لا بد منك فافهم ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب الخامس و الخمسون و مائتان في معرفة المحق و هو فناؤك في عينه و في
معرفة محق المحق و هو ثبوتك في عينه»

فناء الكون في الأعيان محق *** و عين الكون حق ثم خلق

فإن قام الدليل على وجودي *** يقوم بذات من يبغيه محق

و إني بالذي يحويه كوني *** من أسماء الحقيقة في شق

هذا المحق و أما محق المحق فهو

إن محق المحق إبدار *** و هو في التحقيق انذار

فإذا أبصرت طلعته *** في لم تدركه أبصار

قال للحداد حين أتى *** دونه حجب و أستار

من أنا فقال خالقنا *** و دليلي فيك آثار

[أن المحق ظهور في الكون بطريق الاستخلاف و النيابة]

اعلم أن المحق ظهورك في الكون به بطريق الاستخلاف و النيابة عنه فلك التحكم في العالم و محق المحق ظهورك بطريق الستر عليه و الحجاب فأنت تحجبه في محق المحق فيقع شهود الكون عليك خلقا بلا حق لأنهم لا يعلمون أن اللّٰه أرسلك سترا دونهم حتى لا ينظرون إليه فمحق المحق يقابل المحق ما هو مبالغة في المحق و إنما هو مثل عدم العدم فإذا أقيم العبد في


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