الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

أدل من الحرباء فما في العالم صفة و لا حال تبقي زمانين و لا صورة تظهر مرتين و العلم يصحب الأول و الآخر ف‌ ﴿هُوَ الْأَوَّلُ وَ الْآخِرُ وَ الظّٰاهِرُ وَ الْبٰاطِنُ﴾ [الحديد:3] فلون و وحد الهوية في الكثرة فمن لم يقدر على تقرير الوحدة في الكثرة جعل هذه الصفات نسبا و إضافات لوجوه مختلفة و هذا مذهب النظار و أما الطائفة فأقرت الهوية و الوحدة و جعلت الوجه الذي هو منه أول هو عينه منه آخر و ظاهر و باطن صرح بذلك أبو سعيد الخراز فرجال اللّٰه ما أثبتوا للحق إلا ما هم عليه و لا يثبت في الكون و في جميع المخلوقات إلا ما هو الحق عليه فارتبط الكل بالكل و ضرب الواحد في الواحد فلم يتضاعف بل هو عين ما ضرب و كذلك ما يضرب في الواحد أو يضرب الواحد فيه من واحد أو كثرة لا يتضاعف بل هو عين ما ضرب فهكذا الأمر فالتلوين ضرب الواحد في الكثرة فلا يظهر سوى عين تلك الكثرة المضروب فيها الواحد أو المضروبة في الواحد و الحق واحد بلا شك و ضرب الشيء في الشيء نسبته إليه و نحن كثيرون عن عين واحدة جلت و تعالت انتسبت إليها إيجادا و انتسبنا إليها وجودا فمن عرف نفسه خلقا و موجودا عرف الحق خالقا موجدا فإذا نظرت إلى أحدية العالم ضربت الواحد في الواحد و إذا نظرت إلى العالم ضربت الواحد في الكثير و العالم أثر أسمائه و الأثر كما قدمنا صورة الاسم في اللوائح فما ضربت أحدية الحق إلا في صور أسمائه فما زلت عنه فلم يخرج بعد الضرب إلا هو و الأسماء كثيرة كذا ورد الخبر الإلهي فيها من التسعة و التسعين فما فوقها مما يعلم و مما لا يعلم و العين واحدة و الألوان مراتب و التلوين نسبة إليها فإن قلت واحد صدقت و إن قلت كثيرون صدقت فإن أسماء اللّٰه كثيرة لمعان مختلفة و اللّٰه الهادي «بسم اللّٰه الرحمن الرحيم»



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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