الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

(الباب السابع و العشرون و مائة في ترك المراقبة)

لا تراقب فليس في الكون إلا *** واحد العين و هو عين الوجود

فتسمى في حالة بمليك *** و تكني في حالة بالعبيد

و دليلي ما جاء من افتقار *** الفقراء إلى الغني الحميد

هكذا جاء في التلاوة نصا *** في قريب من سعده و بعيد

ثم جاءوا ب‌

﴿أَقْرِضُوا اللّٰهَ قَرْضاً﴾ [الحديد:18]

فبدا النقص و هو عين المزيد

[المقولات العشر ترجع إلى اثنتين انفعال محقق و فاعل معين]

لما كانت المراقبة تنزلا مثاليا للتقريب و اقتضت مرتبة العلماء بالله أنه ﴿لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ﴾ [الشورى:11] فارتفعت الأشكال و الأمثال و لم يتقيد أمر إلا له و لا انضبط و جهل الأمر و تبين أنه لم يكن معلوما في وقت الاعتقاد بأنه كان معلوما لنا و لم يحصل في العلم به أمر ثبوتي بل سلب محقق و نسبة معقولة أعطتها الآثار الموجودة في الأعيان فلا كيف و لا أين و لا متى و لا وضع و لا إضافة و لا عرض و لا جوهر و لا كم و هو المقدار و ما بقي من العشرة إلا انفعال محقق و فاعل معين أو فعل ظاهر من فاعل مجهول يرى أثره و لا يعرف خبره و لا يعلم عينه و لا يجهل كونه فلمن نراقب و ما ثم من يقع عليه عين و لا من يضبطه خيال و لا من يحدده زمان و لا من تعدده صفات و أحكام و لا من تكسيفه أحوال و لا من تميزه أوضاع و لا من تظهره إضافة فكيف نراقب من لا يقبل الصفات و العلم يرفع الخيال فهو الرقيب لا المراقب و هو الحفيظ لا المحفوظ فالذي يحفظه الإنسان إنما هو اعتقاده في قلبه فذلك الذي وسعه من ربه

[أنت ما عبدت على الحقيقة سوى ما نصبه في نفسك]

فإن راقبت فاعلم من راقبت فما زلت عنك و لا عرفت سوى ذاتك فالحادث لا يتعلق إلا بالمناسب و هو ما عندك منه و ما عندك حادث فما برحت من جنسك و ما عبدت على الحقيقة سوى ما نصبته في نفسك و لهذا اختلفت المقالات في اللّٰه و تغيرت الأحوال فطائفة تقول هو كذا و طائفة تقول ما هو كذا بل هو كذا و طائفة قالت في العلم به لون الماء لون إنائه فهذا مؤثر بالدليل مؤثر فيه عند صاحب هذا القول في رأى العين فانظر إلى الحيرة سارية في كل معتقد

[الكامل من عظمت حيرته و دامت حسرته]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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