الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 3861 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و هو أنه «قال صلى اللّٰه عليه و سلم أحبوا اللّٰه لما يغذوكم به من نعمه» فهذا حب جزاء المنعم لما أنعم به عليهم فهذا الحب منهم في مقابلة ﴿إِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ التَّوّٰابِينَ﴾ [البقرة:222] حب جزاء لحب جزاء و الأول حب عناية منه ابتداء و حبهم إياه حب إيثار لجنابه لا حب آلاء و نعم فالتوبة منهم عن محبة منتجة لمحبة أخرى منه فهي بين محبتين متعلقتين بهم من اللّٰه كتوبته عليهم عن محبة منهم تنتج محبة أخرى منهم فتوبته عليهم بين محبتين أيضا و هذا من باب خلق اللّٰه آدم على صورته أي جميع ما تقبله الحضرة الإلهية من الصفات يقبلها الإنسان الصغير و الكبير

[حد التوبة و بيان ركنها الأول]

و حدها ترك الزلة في الحال و الندم على ما فات و العزم على أنه لا يعود لما رجع عنه و يفعل اللّٰه بعد ذلك ما يريد فأما ترك الزلة في الحال فلا بد منه لأن سلطان وقته الحياء و الحياء يحول بسلطانه بين من قام به و بين تعدى حدود اللّٰه و من أسماء اللّٰه تعالى المذكور في السنة الحي و أن اللّٰه يستحيي يوم القيامة من ذي الشيبة فحياء اللّٰه من العبد إنه قد أعلمه أنه سبحانه لا يتوبون إليه حتى يتوب عليهم فإذا وقف المخذول الذي لم يتب اللّٰه عليه فلم يتب إليه و كان في حال وقوفه بين يديه يوم القيامة ذاكرا في نفسه هذه الآية ﴿ثُمَّ تٰابَ﴾ [المائدة:71] ﴿عَلَيْهِمْ لِيَتُوبُوا﴾ [التوبة:118] استحيا اللّٰه منه أن يؤاخذه بذنب كما إن العبد يستحيي من اللّٰه في حال توبته إلى اللّٰه أن يقع منه زلة و هو في هذا الحال فإنه ليس بتائب في تلك الحال و نحن تكلمنا في التائب فالحياء له لازم و الحياء يقتضي ترك الزلة في الحال و من ترك الزلة في الحال للتائب إذا كان عارفا هو ترك نسبتها إلى ربه فينسبها إلى نفسه أدبا مع اللّٰه و في نفس الأمر الفعل فعل اللّٰه و القدر من اللّٰه و الحكم بكونها معصية و زلة حكم اللّٰه و مع هذا فالأدب يقول له انسبها إلى نفسك لما تعلق بها لسان الذم و لهذا قال في حد النفس كل خاطر مذموم و الأصل ﴿فَأَلْهَمَهٰا فُجُورَهٰا وَ تَقْوٰاهٰا﴾ [الشمس:8]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!