الفتوحات المكية

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و «ثبت أن اللّٰه أفرح بتوبة عبده من فرح صاحب الناقة التي عليها طعامه و شرابه إذا وجدها بعد ما ضلت و هو في فلاة من الأرض منقطعة و أيقن بالموت ففرح بها فالله أفرح بتوبة عبده من هذا بناقته» و «ثبت عنه أنه تعالى يتبشبش للذي يأتي المسجد كما يتبشبش أهل الغائب بغائبهم إذا ورد عليهم» و أين هذا كله من قوله تعالى ﴿سُبْحٰانَ رَبِّكَ رَبِّ الْعِزَّةِ عَمّٰا يَصِفُونَ وَ سَلاٰمٌ عَلَى الْمُرْسَلِينَ وَ الْحَمْدُ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰالَمِينَ﴾ و ﴿مٰا قَدَرُوا اللّٰهَ حَقَّ قَدْرِهِ﴾ [الأنعام:91] فأين هذا النزول من هذه الرفعة فهذا هو التواضع الكبريائي و كل حق و قول صدق و حكم صحيح لمن كشف اللّٰه عن بصيرته من علماء عباده فأراه الحق حقا و أراه الباطل باطلا و هنا تعلقت الرؤية بالمعدوم فإن الباطل عدم و إذا كان العبد يتصف برؤية المعدوم فالحق أولى بهذه الصفة أنه يرانا في حال عدمنا رؤية عين و بصر لا رؤية علم و أما قوله ﴿لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ﴾ [الشورى:11] فهو على الصحيح من الفهم معنى «قوله ﷺ إن اللّٰه خلق آدم على صورته» في بعض وجوه محتملات هذا الخبر و قوله تعالى ﴿لَقَدْ خَلَقْنَا الْإِنْسٰانَ فِي أَحْسَنِ تَقْوِيمٍ﴾ [التين:4] فما ذاك إلا لخلقه على صورة الحق و إنما رده إلى أسفل سافلين ليجمع له كمال الصورة بالأوصاف كما ذكر عن نفسه أنه عليه فإن اتصافه بنفي المثل عن نفسه من اتصافه بالحد و المقدار من استواء و نزول و استعطاف و تلطف في خطاب و غضب و رضاء و كلها نعوت المخلوق فلو لم يصف نفسه بنعوتنا ما عرفناه و لو لم ينزه نفسه عن نعوتنا ما عرفناه فهو المعروف في الحالين و الموصوف بالصفتين و لهذا خلق من كل شيء زوجين : ليكون لأحد الزوجين العلو و هو الذكر و لأحد الزوجين السفل و هو الأنثى ليظهر من بينهما إذا اجتمعا بقاء أعيان ذلك النوع و جعل ذلك في كل نوع نوع ليعلمنا أن الأمر في وجودنا على هذا النحو فنحن بينه و بين معقولية الطبيعة التي أنشأ منها الأجسام الطبيعية و أنشأ من نسبة توجهه عليها الأرواح المدبرة و كل ما سوى اللّٰه لا بد أن يكون مركبا من راكب و مركوب ليصح افتقار الراكب إلى المركوب و افتقار المركوب إلى الراكب لينفرد سبحانه بالغنى كما وصف نفسه فهو غني لنفسه و نحن أغنياء به في عين افتقارنا إليه فما لا نستغني عنه فكل ما سوى اللّٰه مدبر و مدبر لهذا المدبر فالمدبر اسم فاعل بما هو مدبر يجد ذلك قوة في ذاته يفتقر إلى مدبر يظهر فيه تدبيره و لا مدبر اسم مفعول بما هو مدبر يجد ذلك حالة في ذاته يفتقر بها إلى من يدبر ذاته لصلاح عينه و بقائه ففقر كل واحد إلى الآخر فقر ذاتي و إنما يتصف بالغنى عنه لكونه لا يفتقر إلا إلى مدبر لا إلى هذا المدبر بعينه كما إن المدبر يتصف بالغنى لكونه لا يفتقر إلا إلى مدبر لا إلى هذا المدبر بعينه فكل واحد منهما غني عن الآخر عينه لا عن التدبير منه و فيه فغني كل واحد ليس على الإطلاق و غناء الحق مطلق بالنظر إلى ذاته و الخلق مفتقر على الإطلاق بالنظر أيضا إلى ذاته فتميز الحق من الخلق و لهذا كفر من قال ﴿إِنَّ اللّٰهَ فَقِيرٌ وَ نَحْنُ أَغْنِيٰاءُ﴾ [آل عمران:181]



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