الفتوحات المكية

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﴿آخِرُ دَعْوٰاهُمْ أَنِ الْحَمْدُ لِلّٰهِ﴾ [يونس:10] فبدأ العالم بالثناء و ختم بالثناء فأين الشقاء السرمد حاشا اللّٰه أن يسبق غضبه رحمته فهو الصادق أو يخصص اتساع رحمته بعد ما أعطاها مرتبة العموم حكاية في هذا اجتمع سهل بن عبد اللّٰه بإبليس فقال له إبليس في مناظرته إياه إن اللّٰه تعالى يقول ﴿وَ رَحْمَتِي وَسِعَتْ كُلَّ شَيْءٍ﴾ [الأعراف:156] و كل تعطي العموم و شيء أنكر النكرات فإنا لا أقطع يأسي من رحمة اللّٰه قال سهل فبقيت حائرا ثم إني تنبهت في زعمي إلى تقييدها فقلت له يا إبليس إن اللّٰه قيدها بقوله ﴿فَسَأَكْتُبُهٰا﴾ [الأعراف:156] قال فقال لي يا سهل التقييد صفتك لا صفته فلم أجد جوابا له على ذلك و فيه علم ما يحمد من التأني و التثبط و ما يذم و علم ما يحمد من العجلة في الأمور و ما يذم و فيه علم الرجوع إلى اللّٰه عن القهر إذا رجع مثله إليه بالإحسان و هل يستوي الرجوعان أم لا يستويان و هذه مسألة حار فيها أهل اللّٰه أعني في رجوع الاضطرار و رجوع الاختيار إذ كان في الاختيار رائحة ربوبية و الاضطرار كله عبودية فهذا سبب الخلاف في أي الرجوعين أتم في حق الإنسان و فيه علم المحاضرات و المناظرات في مجالس العلماء بينهم و أن ذلك كله من محاضرات الأسماء الإلهية بعضها مع بعض ثم ظهر ذلك في الملإ الأعلى إذ يختصمون مع شغلهم بالله و أنهم عليه السّلام في تسبيحهم لا يفترون و لا يسأمون فهل خصومتهم من تسبيحهم كما كان رسول اللّٰه ﷺ يذكر اللّٰه على كل أحيانه مع كونه كان يتحدث مع الأعراب في مجالستهم و مع أهله فهل كل ذلك هو ذكر اللّٰه أم لا و أما اختلاف من خلق من الطبائع فغير منكور لأن الطبائع متضادة فكل أحد يدرك ذلك و لا ينكر المنازعة في عالم الطبيعة و ينكر و نها فيما فوق الطبيعة و أما أهل اللّٰه فلا ينكرون النزاع في الوجود أصلا لعلمهم بالأسماء الإلهية و أنها على صورة العالم بل اللّٰه أوجد العالم على صورتها لأنها الأصل و فيها المقابل و المخالف و الموافق و المساعد و فيه علم الفرق بين من كان معلمه اللّٰه و من كان معلمه نظره الفكري و من كان معلمه مخلوق مثله فأما صاحب نظر فيلحق بمعلمه و أما صاحب إلقاء إلهي فيلحق بمعلمه و لا سيما في العلم الإلهي الذي لا يعلم في الحقيقة إلا بإعلامه فإنه يعز أن يدرك بالإعلام الإلهي فكيف بالنظر الفكري و لذلك نهى رسول اللّٰه ﷺ عن التفكر في ذات اللّٰه و قد غفل الناس عن هذا القدر فما منهم من سلم من التفكر فيها و الحكم عليها من حيث الفكر و ليس لأبي حامد الغزالي عند نازلة بحمد اللّٰه أكبر من هذه فإنه تكلم في ذات اللّٰه من حيث النظر الفكري في المضنون به على غير أهله و في غيره و لذلك أخطأ في كل ما قاله و ما أصاب و جاء أبو حامد و أمثاله في ذلك بأقصى غايات الجهل و بأبلغ مناقضة لما أعلمنا اللّٰه به من ذلك و احتاجوا لما أعطاهم الفكر خلاف ما وقع به الإعلام الإلهي إلى تأويل بعيد لينصروا جانب الفكر على جانب إعلام اللّٰه عن نفسه ما ينبغي أن ينسب إليه و كيف ينبغي أن ينسب إليه تعالى فما رأيت أحدا وقف موقف أدب في ذلك إلا خاض فيه على عماية إلا القليل من أهل اللّٰه لما سمعوا ما جاءت به رسله صلوات اللّٰه عليهم فيما وصف به نفسه وكلوا علم ذلك إليه و لم يتأولوا حتى أعطاهم اللّٰه الفهم فيه بإعلام آخر أنزله في قلوبهم فكانت المسألة منه تعالى و شرحها منه تعالى فعرفوه به لا بنظرهم فالله يجعلنا من الأدباء الأمناء الأتقياء الأبرياء الأخفياء الذين اصطفاهم الحق لنفسه و خبأهم في خزائن العادات في أحوالهم و فيه علم قول المبلغ عن اللّٰه تعالى قولا بلغه عن اللّٰه لو قاله عن نفسه على مجرى العرف فيه لكان رادا على نفسه بما ادعاه أنه جاء به من عند اللّٰه فلما قاله عن أمر اللّٰه عرف بالأمر الإلهي معنى ذلك و هو قول الإنسان إذا أمر بالخير أحدا من خلق اللّٰه من سلطان أو غيره فيجني عليه ذلك الأمر بالخير ممن أمره به ضرارا في نفسه إما نفسيا و إما حسيا أو المجموع فإن الراد له و الضار عليه استهان بالله و هو أشد ما يمشي على الداعي إلى اللّٰه لأنه على بصيرة من اللّٰه فيما دعا إليه من الخير فيقول عند ذلك ليتني ما دعوته إلى شيء من هذا لما طرأ عليه من الضرر في ذلك فهي مزلة العارفين إذا قالوا مثل ذلك فإن اللّٰه يقول ﴿وَ قُلِ الْحَقُّ مِنْ رَبِّكُمْ فَمَنْ شٰاءَ فَلْيُؤْمِنْ وَ مَنْ شٰاءَ فَلْيَكْفُرْ﴾ [الكهف:29]



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