الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 7235 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

اعلم أيدك اللّٰه أيها الطالب أن معرفة الأمور على ما هي عليه في أنفسها إنك لا تعلم ذلك إلا إذا أوقفك اللّٰه عليك من نفسك و أشهدك ذلك من ذاتك فيحصل لك ما طلبته ذوقا عند ما تقف عليه كشفا و لا سبيل إلى حصول ذلك إلا بعناية أزلية تعطيك استعدادا تاما لقبوله برياضات نفسية و مجاهدات بدنية و تخلق بأسماء إلهية و تحقق بأرواح طاهرة ملكية و تطهير بطهارة شرعية مشروعة لا معقولة و عدم تعلق بأكوان و تفريغ محل عن جميع الأغيار لأن الحق ما اصطفى لنفسه منك إلا قلبك حين نوره بالإيمان فوسع جلال الحق فعاين من هذه صفته الممكنات بعين الحق فكانت له مشهودة و إن لم تكن موجودة فما هي له مفقودة و قد كشف لبصيرته بل لبصره و بصيرته نور الايمان حين انبسط على أعيان الممكنات أنها في حال عدمها مرئية رائية مسموعة سامعة برؤية ثبوتية و سمع ثبوتي لا وجود له فعين الحق ما شاء من تلك الأعيان فوجه عليه دون غيره من أمثاله قوله المعبر عنه باللسان العربي المترجم بكن فأسمعه أمره فبادر المأمور فتكون عن كلمته لا بل كان عين كلمته و لم تزل الممكنات في حال عدمها الأزلي لها تعرف الواجب الوجود لذاته و تسبحه و تمجده بتسبيح أزلي و تمجيد قديم ذاتي و لا عين لها موجودة و لا حكم لها مفقود فإذا كان حال الممكنات كلها على ما ذكرناه من هذه الصفات التي لا جهل معها فكيف تكون في حال وجودها و ظهورها لنفسها جمادا لا ينطق أو نباتا بتعظيم خالقه لا يتحقق أو حيوانا بحاله لا يصدق أو إنسانا بربه لا يتعلق هذا محال فلا بد أن يكون كل ما في الوجود من ممكن موجود يسبح اللّٰه بحمده بلسان لا يفقه و لحن ما إليه كل أحد يتنبه فيسمعه أهل الكشف شهادة و يقبله المؤمن إيمانا و عبادة فقال تعالى ﴿وَ إِنْ مِنْ شَيْءٍ إِلاّٰ يُسَبِّحُ بِحَمْدِهِ وَ لٰكِنْ لاٰ تَفْقَهُونَ تَسْبِيحَهُمْ إِنَّهُ كٰانَ حَلِيماً غَفُوراً﴾ [الإسراء:44] فجاء باسم الحجاب و الستر و هو قوله



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!