الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

فإذا تعدى بالفكر حده و فكر فيما لا ينبغي له أن يفكر فيه عذب يوم القيامة بنار فكره ثم إن الإنسان يشغله الفكر فيما لم يشرع له التفكر فيه عن شكر المنعم على النعم التي أنعم اللّٰه عليه بها فيكون صاحب عذابين عذاب الفكر فيما لا ينبغي و عذاب عدم الشكر على ما أنعم به عليه و لا نعمة أعظم من نعمة العلم و إن كانت نعم اللّٰه لا تحصى من حيث أسبابها الموجبة لها و إنما النعيم على الحقيقة وجود اللذة في نفس المنعم عليه بها عند أسباب كثيرة لا تحصى محصورة في أمرين في وجود ما تكون به اللذة و في عدم ما يكون بعدمه اللذة و هي أمور نسبية كوجود لذة خائف من عدو يتوقعه فيهلك ذلك العدو فيجد هذا من اللذة عند هلاكه ما لا يقدر قدرها و ذلك لوجود الأمن مما كان يحذره فالأسباب لا تحصى كثرة و اللذة واحدة و هي النعمة المحققة كما إن الألم هو العذاب المحقق و أسبابه لا تحصى فسمى الشيء باسم الشيء إذا كان مجاورا له أو كان منه بسبب

[أن الزيارة و هو الميل]

و اعلم أن الزيارة مأخوذة من الزور و هو الميل فمن زار قوما فقد مال إليهم بنفسه فإن زارهم بمعناه فقد مال إليهم يقلبه و شهادة الزور الميل إلى الباطل عن الحق فزيارة الموتى الميل إليهم تعشقا لصفة الموت إن تحل به فإن الميت لا حكم له في نفسه و إنما هو في حكم من يتصرف فيه و لا يتصور من الميت منع و لا إباية و لا حمد و لا ذم و لا اعتراض بل هو مسلم تسليم حال ذاتي كذلك ينبغي لزائره إن يكون حاله مع اللّٰه حال الميت مع من يتصرف فيه و إذا بلغ إلى هذا المقام على الحد المشروع فيه لا على الإطلاق حينئذ يبلغ مبلغ الرجال و لا يكون موصوفا بهذه الصفة على الإطلاق إلا في معناه لا في حسه الظاهر و الباطن بل ينبغي له أن يكون حيا في أفعاله الظاهرة و الباطنة في الأمور التي تعلق بها النهي الإلهي و يكون ميتا بالتسليم لموارد القضاء عليه في كل ذلك لا للمقضي



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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