الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

اعلم علمك اللّٰه أن ترك الاستقامة من أعلام الإقامة عند اللّٰه و الحضور معه في كل حال كما «قالت عائشة أم المؤمنين رضي اللّٰه عنها في حق النبي ﷺ من أنه كان يذكر اللّٰه على كل أحيانه» فهو في الدنيا موصوف بصفة أرض الآخرة ﴿لاٰ تَرىٰ فِيهٰا عِوَجاً وَ لاٰ أَمْتاً﴾ [ طه:107] و لما كانت الاستقامة تتميز بالاعوجاج و لا اعوجاج فلا استقامة مشهودة

فالكل في عين الوجود *** على طريق واحد

و الكل في عين الرضي *** من مؤمن أو جاحد

[الإمكان للعالم نعت ذاتى له فالميل له ذاتى فلا استقامة]

و قد يكون مشهد صاحب هذا الشهود النظر في إمكان العالم و الإمكان سبب مرضه و المرض ميل و الميل ضد الاستقامة و الإمكان للعالم نعت ذاتي لا يتصور زواله لا في حال عدمه و لا في حال وجوده فالمرض له ذاتي فالميل له ذاتي فلا استقامة فالعالم مرضه زمانة لا يرجى رفعها إلا إن الكون محل لوجود المغالطات لأمور تقتضيها الحكمة و يطلبها العقل السليم لعلمه بما يصلح الكون إذ شرع التكليف و لم يكن في الوسع أن تكون آحاد العالم على مزاج واحد فلما اختلفت الأمزجة كان في العالم العالم و الأعلم و الفاضل و الأفضل فمنه من عرف اللّٰه مطلقا من غير تقييد و منهم من لا يقدر على تحصيل العلم بالله حتى يقيده بالصفات التي لا توهم الحدوث و تقتضي كمال الموصوف و منهم من لا يقدر على العلم بالله حتى يقيده بصفات الحدوث فيدخله تحت حكم ظرفية الزمان و ظرفية المكان و الحد و المقدار

[تنزلت الشرائع الإلهية على حسب الأمزجة الإنسانية و الكامل المزاج من عقد كل اعتقاد]

و لما كان الأمر في العلم بالله في العالم في أصل خلقه و على هذا المزاج الطبيعي المذكور أنزل اللّٰه الشرائع على هذه المراتب حتى يعم الفضل الإلهي جميع الخلق كله فأنزل ليس كمثله شيء و هو لأهل العلم بالله مطلقا من غير تقييد و أنزل قوله تعالى ﴿أَحٰاطَ بِكُلِّ شَيْءٍ عِلْماً﴾ [الطلاق:12] و ﴿هُوَ عَلىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ﴾ [المائدة:120]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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