الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4030 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

اعلم وفقك اللّٰه أن الصمت أحد الأربعة الأركان التي بها يكون الرجال و النساء أبدا لا قيل لبعضهم كم الأبدال قال أربعون نفسا قيل له لم لم تقل رجلا قال قد يكون فيهم النساء كما «قال ﷺ في الكمال فذكر أنه يكون أيضا في النساء و عين منهن مريم ابنة عمران و آسية امرأة فرعون»

[مقام الصمت و حاله و حكمه]

و له حال و مقام فأما مقامه فهو إنه لا يرى متكلما إلا من خلق الكلام في عباده و هو اللّٰه تعالى ﴿خٰالِقُ كُلِّ شَيْءٍ﴾ [الأنعام:102] فالعبد صامت بذاته متكلم بالعرض و أما حاله فهو أن يرى أن اللّٰه و إن خلق الكلام فيه فالعبد هو المتكلم فيه كما هو المتحرك بخلق الحركة فيه و لا يصح أن يصمت مطلقا أصلا فإنه مأمور بذكر اللّٰه تعالى في أحوال مخصوصة أمر وجوب فهو مقام مقيد بصفة تنزيه لأنه وصف سلبي و حكمه في ظاهر الإنسان و أما باطنه فلا يصح فيه صمت فإنه كله ناطق بتسبيح اللّٰه فالصمت محال و إنما الكلام على الصمت المعلوم بالعرف و من تخلل صمته كلام في غير فرض و لا ذكر لله فما صمت

[الصامت في طريق اللّٰه]

فالصامت هنا هو الذي يقيم نشأة مصمتة الأجزاء لا يتخللها حين فارغ مقدر حينئذ يكون صامتا و إذا أراد الإنسان أن يختبر نفسه هل هو ممن صمت كما ينبغي فلينظر هل له فعل بالهمة المجردة فيما من شأنه أن لا يفعل إلا بالكلام أم لا فإن أثر و حصل المقصود فهو صامت حقيقة مثل أن يريد أن يقول لخادمه اسقني ماء و أتني بطعام أو سر إلى فلان فقل له كذا و كذا و لا يشير إلى الخادم بشيء من هذا كله فيجد الخادم في نفسه ذلك كله بأن يخلق اللّٰه في سمع الخادم عن ذلك يقول فلان قال لي افعل كذا و كذا يسمع ذلك حسا بإذنه و لكن يتخيل أنه صوت ذلك الصامت و ليس كذلك فمن ليست له هذه الحالة فلا يدعي أنه صامت

[المتكلم بالإشارة]

و أما الصامت المتكلم بالإشارة فهو يتعب نفسه و غيره و لا ينتج له شيئا بل هو ممن يتشبه بالأخرس الذي يتكلم بالإشارة فلا يعول عليه و هذا مما غلط فيه جماعة من أهل الطريق فمن نصح نفسه فقد أقمنا له ميزان هذا المقام الذي يزنه به حتى لا يتلبس عليه الأمر و هذا لا يكون إلا للالهيين المحسنين لا لغيرهم من المؤمنين و المسلمين الذين لم يحصل لهم مقام الإحسان



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!