الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

«أن رجلا سأل رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم أن يسأل ربه في حقه مرافقته في الجنة فقال له رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم أعني على نفسك بكثرة السجود» فنبهه بهذا العمل على نفسه و سوء أدبه معه و الطريق يقتضي أن الشيخ لا ينسى أهل زمانه فكيف مريده المختص بخدمته فإنه من فتوة أهل هذا الطريق و معرفتهم بالنفوس أنهم إذا كان يوم القيامة و ظهر ما لهم من الجاه عند اللّٰه خاف منهم من آذاهم هنا في الدنيا فأول ما يشفعون يوم القيامة فيمن آذاهم قبل المؤاخذة و هذا نص أبي يزيد البسطامي و هو مذهبنا

[ابن عربى و شفاعته يوم القيامة فيمن أدركه بصره]

فإن الذين أحسنوا إليهم يكفيهم عين إحسانهم فهم بإحسانهم شفعاء أنفسهم عند اللّٰه بما قدموه من الخير في حق هذا الولي و ﴿هَلْ جَزٰاءُ الْإِحْسٰانِ إِلاَّ الْإِحْسٰانُ﴾ [الرحمن:60] و من عفا و أصلح فأجره على اللّٰه و ذلك للعافين عن الناس بل الولي لا ينسى من يعرف الشيخ و إن كان الشيخ لا يعرفه فيسأل اللّٰه تعالى أن يغفر و يعفو عمن سمع بذكره فسبه و ذمه أو أثنى عليه خيرا و هذا ذقته من نفسي و أعطانيه ربي بحمد اللّٰه وعدني بالشفاعة يوم القيامة فيمن أدركه بصري ممن أعرف و من لا أعرف و عين لي هذا المشهد حتى عاينته ذوقا صحيحا لا أشك فيه

[ابن عربى مع شيخه أبى إسحاق بن طريف بالجزيرة الخضراء]

و هذا مذهب شيخنا أيضا أبي إسحاق بن طريف و هو من أكبر من لقيته و لقد سمعت هذا الشيخ يوما و أنا عنده بمنزله بالجزيرة الخضراء سنة تسع و ثمانين و خمسمائة و قال لي يا أخي و اللّٰه ما أرى الناس في حق إلا أولياء عن آخرهم ممن يعرفني قلت له كيف تقول يا أبا إسحاق فقال إن الناس الذين رأوني أو سمعوا بي إما أن يقولوا في حقي خيرا أو يقولوا ضد ذلك فمن قال في حقي خيرا و أثنى علي فما وصفني إلا بصفته فلو لا ما هو أهل و محل لتلك الصفة ما وصفني بها فهذا عندي من أولياء اللّٰه تعالى و من قال في شرا فهو عندي ولي أطلعه اللّٰه على حالي فإنه صاحب فراسة و كشف ناظر بنور اللّٰه فهو عندي ولي فلا أرى يا أخي الأولياء لله و ما قال لي هذا إلا من أجل كلام جرى بيني و بينه في حق إنسان من أهل سبتة كان خلف هذا الشيخ بخلاف ما كان يلقاه به فهذا بلغ من حسن اعتقاده و كان من الشيوخ الذين تحسب عليهم أنفاسهم و يعاقبون على غفلاتهم و مات في عقوبة غفلة ذكرناها في الدرة الفاخرة عند ذكري إياه فيها



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