الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 2463 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و أعلى الغني الغني بالله و الاستعفاف هنا القناعة بالقليل فإن العفو يرد في اللسان و يراد به القليل و هو من الأضداد و الصدقة عن ظهر غنى هي الصدقة و الدعاء عن ظهر فقر هو الدعاء المجاب بلا شك و أين الداعي عن ظهر فقر و المعطي عن ظهر غنى

(وصل في فصل حاجة النفس إلى العلم)

[العلم الشرعي و الإلهي و الأخروى]

اعلم أن حاجة النفس إلى العلم أعظم من حاجة المزاج إلى القوت الذي يصلحه و العلم علمان علم يحتاج منه مثل ما يحتاج من القوت فينبغي الاقتصاد فيه و الاقتصار على قدر الحاجة و هو علم الأحكام الشرعية لا ينظر منها إلا قدر ما تمس الحاجة إليه في الوقت فإن تعلق حكمها إنما هو بالأفعال الواقعة في الدنيا فلا تأخذ منه إلا قدر عملك و العلم الآخر هو ما لا حد له يوقف عنده و هو العلم المتعلق بالله و مواطن القيامة فإن العلم بمواطن القيامة يؤدي العالم بها إلى الاستعداد لكل موطن بما يليق به لأن الحق بنفسه هو المطالب في ذلك اليوم بارتفاع الحجب و هو يوم الفصل فينبغي للإنسان العاقل أن يكون على بصيرة من أمره معدا للجواب عن نفسه و عن غيره في المواطن التي يعلم أنه يطلب منه الجواب فيها و لهذا ألحقناه بالعلم بالله

[ينبغي لطالب العلم أن لا يسأل في المسئول إلا اللّٰه]

و ينبغي لطالب العلم أن لا يسأل في المسئول إلا اللّٰه لا عين المسئول هكذا ينبغي أن يكون عليه السائل من الحضور مع اللّٰه فليستكثر هذا السائل من السؤال فإن اللّٰه هو المسئول فإن لم يحضر له ذلك و لم يشاهد سوى الأستاذ و لا يرى العلم إلا منه و لا يرده ذلك العالم إلى اللّٰه بقوله ﴿اَللّٰهُ أَعْلَمُ﴾ [آل عمران:36] و لا يقول له من العلم ما يرده إلى اللّٰه فيه فذلك الذي أشار إليه رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم على ما «ذكره مسلم من حديث أبي هريرة من سأل الناس أموالهم تكثرا فإنما يسأل جمرا فليستقلل أو ليستكثر»



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!