الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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أمر مزيل حكمها من خلقه *** فعلمت منه خلافتي بالذات

فأنا المبرز في كمال خلافتي *** عنه و يعلم ذاك كل موات

[المؤمن اسم لله تعالى و للإنسان]

اعلم أيدنا اللّٰه و إياك بروح القدس أن الكشف المختص بهذا الذكر أن تطلع منه ذوقا على كون المؤمنين ﴿بَعْضُهُمْ أَوْلِيٰاءُ بَعْضٍ﴾ [المائدة:51] و ﴿اَلْمُؤْمِنُ﴾ [البقرة:223] اسم لله تعالى و المؤمن اسم للإنسان و قد عم في الولاية بين المؤمنين فهو ولي الذين آمنوا بإخراجه إياهم من الظلمات إلى النور و ليس إلا إخراجهم من العلم بهم إلى العلم بالله «فإنه يقول من عرف نفسه عرف ربه» فيعلم أنه الحق فيخرج العارف المؤمن الحق بولايته التي أعطاه اللّٰه من ظلمة الغيب إلى نور الشهود فيشهد ما كان غيبا له فيعطيه كونه مشهودا و لم يكن له هذا الحكم من هذا الشخص قبل هذا فهذا للعبد تول بهذا القدر من كون الحق له اسم المؤمن كما تولى الحق عبده من كونه مؤمنا و كون الشخص مؤمنا سببا في إخراجه من الظلمات إلى النور و ذلك نصرته المؤمنين من عباده فالمؤمن للمؤمن كالبنيان المرصوص يشد بعضه بعضا و هذا من باب الإشارة إلى حكم الأسماء فيشد منا و نشد منه قال تعالى ﴿إِنْ تَنْصُرُوا اللّٰهَ يَنْصُرْكُمْ﴾ [محمد:7] من حيث هو المؤمن و نحن المؤمنون

فلنا منه التولي

أنا مال اللّٰه فاحفظ

ما في قوله مالي هو بمعنى الذي

[أن ظلمة الإمكان عين الجهل المحض]

فاعلم يا ولي أن ظلمة الإمكان أشد الظلمات فإنها عين الجهل المحض فإذا تولى اللّٰه عبده أخرجه من ظلمة هذا الجهل الذي هو الإمكان و ليس إلا نظره لنفسه معرى عن نظره للذي تولاه فيخرجه بهذا التولي من ظلمة إمكانه إلى نور وجوب وجوده به و هو المنعوت بالواجب فأخرجه منه لنفسه و فرق بين الوجوب الذي حكمه لله و بين حكم الوجوب الذي لنا بالتقيد به فوجوبه تعالى لنفسه و وجوبنا به

فاشتركنا في الوجوب

حين حزنا بالوجود

فهو لي أشرف و سم

فأنا أحمد ربي

ثم لو جحدت هذا

و رأيت عين ذاتي

فإنا إن كنت شيخا *** عقلنا عقل الوليد

[ولاية الرب و ولاية العبد]

فولاية العبد ربه و ولاية الرب عبده في قوله ﴿إِنْ تَنْصُرُوا اللّٰهَ يَنْصُرْكُمْ﴾ [محمد:7] و بين الولايتين فرق دقيق فجعل تعالى نصره جزاء و جعل مرتبة الإنشاء إليك كما قدمك في العلم بك على العلم به و ذلك لتعلم من أين علمك فتعلم علمه بك كيف كان لأنه قال ﴿وَ لَنَبْلُوَنَّكُمْ حَتّٰى نَعْلَمَ﴾ [محمد:31] و قد ذكرنا في كتاب المشاهد القدسية أنه قال لي أنت الأصل و أنا الفرع على وجوه منها علمه بنا منا لا منه فانظر فإن هنا سرا غامضا جدا و هو عند أكثر النظار منه لا منا أوقعهم في ذلك حدوثنا و الكشف يعطي ما ذكرناه و هو الحق الذي لا يسعنا جهله و لما سألني عن هذه اللفظة مفتي الحجاز أبو عبد اللّٰه محمد بن أبي الصيف اليمني نزيل مكة ذكرت له أن علمنا به فرع عن علمنا بنا إذ نحن عين الدليل «يقول رسول اللّٰه ﷺ من عرف نفسه عرف ربه» كما إن وجودنا فرع عنه و وجوده أصل فهو أصل في وجودنا فرع في علمنا به و هو من مدلول هذه اللفظة فسر بذلك و ابتهج رحمه اللّٰه و هذا الوجه الآخر من مدلولها أيضا و هو أعلى و لكن ما ذكرناه له رحمه اللّٰه في ذلك المجلس لأنه ما يحتمله و لا يقدر أن ينكره و ما ثم ذلك الايمان القوي عنده و لا العلم و لا النظر السليم فكان يحار فأبرزنا له من الوجوه ما يلائم مزاج عقله و هو صحيح فإنه ما ثم وجه إلا و هو صحيح في الحق و ليس الفضل إلا العثور على ذلك فالله ولي المؤمن و المؤمن ولي اللّٰه «سئل رسول اللّٰه ﷺ فقيل له من أولياء اللّٰه فقال ﷺ الذين إذا رأوا ذكر اللّٰه» فذكر و علم و شهد برؤيتنا إياهم فجعلهم أولياء اللّٰه كما جاء عن اللّٰه أنه ﴿وَلِيُّ الَّذِينَ آمَنُوا﴾ [البقرة:257]


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