الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
 

الصفحة - من الجزء (عرض الصورة)


futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 294 - من الجزء 2

انقطعوا إليه و هو اللّٰه تعالى ورثا نبويا من قوله تعالى ﴿سُبْحٰانَ الَّذِي أَسْرىٰ بِعَبْدِهِ﴾ [الإسراء:1] ثم قال ﴿لِنُرِيَهُ مِنْ آيٰاتِنٰا﴾ [الإسراء:1] فعرج به إلى السموات إلى أن بلغ به الإسراء إلى حيث قدره اللّٰه له من المنازل العالية فأراه من الآيات ما زاده علما بالله إلى علمه لذا قرن به أنه هو السميع لما خوطب به البصير لما شاهده من الآيات فالسائحون من عباد اللّٰه يشاهدون من آيات اللّٰه و من خرق العوائد ما يزيدهم قوة في إيمانهم و نفسهم و معرفتهم بالله و أنسابه و رحمة بخلقه و شفقة عليهم فإذا رأوا قنة جبل شامخ تذكروا علوا لهم حيث لم يطلبوا من اللّٰه إلا الأنفس و هو الانفراد به في خلوة من أشكالهم حذرا من الشغل بسواهم و إذا كانوا في بطن واد أو قاع من القيعان ذكرهم ذلك بعبوديتهم و تواضعهم تحت جبروت سلطان خالقهم فذلوا في أنفسهم و عرفوا مقدارهم و علموا إن ما ينالونه من الرفعة إنما ذلك عناية اللّٰه لا باستحقاق ثم إذا كانوا على ساحل بحر تذكروا بالبحر سعة علم اللّٰه و سعة عظمته و رحمته ثم يرون مع هذه العظمة ما تحدث فيه الرياح من تلاطم الأمواج و تداخل بعضها في بعض فيذكرهم ذلك في جناب الحق تعارض الأسماء الإلهية و تداخل بعضها في بعض في تعلقاتها مثل الاسم المنتقم و السريع الحساب و الشديد العقاب عند معصية العاصي و يجيء أيضا في مقابلة هذه الأسماء الاسم الغفار و العفو و المحسان فتتقابل الأسماء على هذا العبد العاصي و كذلك التردد الإلهي يعتبرونه في تموج هذا البحر فيفتح لهم في بواطنهم في علوم إلهية لا ينالونها إلا في مشاهدة ذلك البحر في سياحتهم فيكثر منهم التكبير و التعظيم لجناب اللّٰه ثم ما يحصل لهم من خرق العوائد في استئناس الوحوش بهم و إقبالهم عليهم و فيهم من تكلمه الوحوش بلسانه و فيهم من يعلم منطقها و ترى ما هم عليه من عبادة اللّٰه ما يزيدهم ذلك حرصا و اجتهادا في طاعة ربهم و الحكايات في كتب القوة في ذلك كثيرة جدا و لو لا أن كتابنا هذا مبناه على المعارف و الأسرار لسقنا من الحكايات ما شاهدناه بنفوسنا في سياحتنا و اجتماعنا بهذه الطائفة و ما رأينا فيهم من العجائب و هذا القدر كاف في الغرض المقصود من هذا الباب حتى يرد الكلام إن شاء اللّٰه في السفر و مراتبه فيما بعد عند ذكر المسافر و السالك و الطريق ﴿وَ اللّٰهُ يَهْدِي مَنْ يَشٰاءُ﴾ [البقرة:213] إلى الحق و ﴿إِلىٰ طَرِيقٍ مُسْتَقِيمٍ﴾ [الأحقاف:30]

(الباب الخامس و السبعون و مائة في مقام ترك السفر)

احذر بأن تجعل الأعيان واحدة *** إذا أتتك بها الآيات و السور

من قوله أنت عبدي و الإله أنا *** و ما لنا عندكم عين و لا أثر

قال اللّٰه تعالى ﴿اَلَّذِي أَحَلَّنٰا دٰارَ الْمُقٰامَةِ مِنْ فَضْلِهِ لاٰ يَمَسُّنٰا فِيهٰا نَصَبٌ وَ لاٰ يَمَسُّنٰا فِيهٰا لُغُوبٌ﴾ [فاطر:35] قال تعالى ﴿وَ هُوَ مَعَكُمْ أَيْنَ مٰا كُنْتُمْ﴾ [الحديد:4] فقطع المسافات زيادة تعب بل تعب خاصة فإنه ما يحركني إلا طلبه فلو لا أني جعلته مطلوبي و مقصدي بهذه السياحة و السفر ما طلبته و قد أخبرني أنه معي في حال انتقالاتي كما هو معي في حال الإقامة و له في كل شيء وجهة فلما ذا أجول فالحركة لتحصيله دليل على عدم الوجدان في السكون فاطلب وجهه في موضع إقامتي فإذا عرفته فيه كنت منزلا من منازل القمر مقصودا لا قاصدا و لا نازلا تطلبني الأسماء و لا أطلبها و تقصدني الأنوار و لا أقصدها وقفت مع من لا يجوز عليه التحرك و الانتقال فصاحب السفر مع «قوله ينزل ربنا كل ليلة إلى السماء الدنيا» و صاحب الإقامة مع قوله ﴿اَلرَّحْمٰنُ عَلَى الْعَرْشِ اسْتَوىٰ﴾ [ طه:5] و السكون أولى من الحركة فإن العبد مأمور بالسكون تحت مجاري الأقدار و ما يأتي به اللّٰه إليه في الليل و النهار و قال في ذم من بادر الأقدار بادرني عبدي بنفسه حرمت عليه الجنة و المبادرة حركة ما قال اللّٰه لنا آمرا ﴿فَاتَّخِذْهُ وَكِيلاً﴾ [المزمل:9] إلا لنسكن و يكون هو سبحانه الذي يتصرف في أمر عبده حتى يوفيه ما قدر له من كل ما يصيبه حتى أنه لو كان مما يصيبه السفر و الانتقال لنقله الحق بهذه الصفة التي هو عليها من السكون في محفة عناية إلهية لا يعرف الحركة المتعبة مستريحا مظللا عليه مخدوما هذا سفر تارك السفر إذا كان مقدرا له السفر و قد ذقنا الأمرين و رأينا السكون أرجح من الحركة و أقوى في المعرفة مع انتقال الأحوال عليه في كل نفس و ذاك الانتقال عليه لا بد منه له فهو طريق مطرقة يسلك فيها و لا يسلك فإذا انتقل هو بذاته فلا يزيد شيئا على تلك الانتقالات عليه


مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4504 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4505 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4506 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4507 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4508 من مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لطبعة القاهرة (دار الكتب العربية الكبرى) - المعروفة بالطبعة الميمنية. وقد تم إضافة عناوين فرعية ضمن قوسين مربعين.

 

الصفحة - من الجزء (اقتباسات من هذه الصفحة)

[الباب: ] - (مقاطع فيديو مسجلة لقراءة هذا الباب)

البحث في كتاب الفتوحات المكية

الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!