الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 673 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

﴿تَبٰارَكَ اللّٰهُ رَبُّ الْعٰالَمِينَ﴾ [الأعراف:54] و هذا كان علم الحسين بن منصور رحمه اللّٰه فإذا سمعت أحدا من أهل طريقنا يتكلم في الحروف فيقول إن الحرف الفلاني طوله كذا ذراعا أو شبر أو عرضه كذا كالحلاج و غيره فإنه يريد بالطول فعله في عالم الأرواح و بالعرض فعله في عالم الأجسام ذلك المقدار المذكور الذي يميزه به و هذا الاصطلاح من وضع الحلاج

[كن-علم عيسى-الرحمة الشاملة]

فمن علم من المحققين حقيقة كن فقد علم العلم العلوي و من أوجد بهمته شيئا من الكائنات فما هو من هذا العلم و لما كانت التسعة ظهرت في حقيقة هذه الثلاثة الأحرف ظهر عنها من المعدودات التسعة الأفلاك و بحركات مجموع التسعة الأفلاك و تسيير كواكبها وجدت الدنيا و ما فيها كما أنها أيضا تخرب بحركاتها و بحركة الأعلى من هذه التسعة وجدت الجنة بما فيها و عند حركة ذلك الأعلى يتكون جميع ما في الجنة و بحركة الثاني الذي يلي الأعلى وجدت النار بما فيها و القيامة و البعث و الحشر و النشر و بما ذكرناه كانت الدنيا ممتزجة نعيم ممزوج بعذاب و بما ذكرناه أيضا كانت الجنة نعيما كلها و النار عذابا كلها و زال ذلك المزج في أهلها فنشأة الآخرة لا تقبل مزاج نشأة الدنيا و هذا هو الفرقان بين نشأة الدنيا و الآخرة ألا أن نشأة النار أعني أهلها إذا انتهى فيهم الغضب الإلهي و أمده و لحق بالرحمة التي سبقته في المدى يرجع الحكم لها فيهم و صورتها لا تتبدل و لو تبدلت تعذبوا فيحكم عليهم أولا بإذن اللّٰه و توليته حركة الفلك الثاني من الأعلى بما يظهر فيهم من العذاب في كل محل قابل للعذاب و إنما قلنا في كل محل قابل للعذاب لأجل من فيها ممن لا يقبل العذاب فإذا انقضت مدتها و هي خمس و أربعون ألف سنة تكون في هذه المدة عذابا على أهلها يتعذبون فيها عذابا متصلا لا يفتر ثلاثة و عشرين ألف سنة ثم يرسل الرحمن عليهم نومة يغيبون فيها عن الإحساس و هو قوله تعالى ﴿لاٰ يَمُوتُ فِيهٰا وَ لاٰ يَحْيىٰ﴾ [ طه:74]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!