الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و من خلقنا افتقارنا إلى ما يكون به صلاحنا حيث كنا من دنيا و آخرة و لا نعلم طريقنا إلى المصلحة لأنه ما خلق الأشياء من أجلنا فوكلناه ليسخر لنا من هذه الأشياء ما يرى فيه المصلحة لنا امتنانا منه و امتثالا لأمره فنكون في توكلنا عليه عبيدا مأمورين ممتثلين أمره نرجو بذلك خيره فوقع التوكل في المصالح لا في عين الأشياء و هذا برزخ دقيق لا يشعر به كل أحد للطافته و هو جمع بين الاثنين و تثبيت للحكمين و إن كان قد تكلم أهل هذا المقام فيه و ما من أحد منهم إلا نزع لأحد الطرفين من غير جمع بينهما

[حالات المتوكلين العارفين مع وكيلهم و هو اللّٰه رب العالمين]

فالرجال المنعوتون بهذا المقام منهم من يكون بين يدي اللّٰه فيه كالميت بين يدي الغاسل يقلبه كيف يشاء و لا يعترض عليه في شيء و منهم من حالته فيه حال العبد مع سيده في مال سيده و منهم من حاله فيه حال الولد مع والده في مال ولده و منهم من حاله فيه حال الوكيل مع موكله بجعل كان أو بغير جعل

[التوكل لا يصح في الإنسان على الإطلاق على الكمال]

و الذي عليه المحققون و به نقول إن التوكل لا يصح في الإنسان على الإطلاق على الكمال لأن الافتقار الطبيعي بحكم ذاته فيه و الإنسان مركب من أمر طبيعي و ملكوتي و لما علم الحق أنه على هذا الحد و قد أمر بالتوكل و ما أمر به إلا و هو ممكن الاتصاف به و قد وصف نفسه بالغيرة على الألوهية فأقام نفسه مقام كل شيء في خلقه إذ هو المفتقر إليه بكل وجه و في كل حال فقال يا أيها الناس و ما خص مؤمنا و لا غيره ﴿أَنْتُمُ الْفُقَرٰاءُ إِلَى اللّٰهِ وَ اللّٰهُ هُوَ الْغَنِيُّ الْحَمِيدُ﴾ [فاطر:15] فما افتقرتم إليه من الأشياء هو لنا و بأيدينا و ما هو لنا فما يطلب إلا منا فإلينا الافتقار لا إليه إذ هو غير مستقل إلا بنا

[الأحوال التي يصح اتصاف التوكل بها]

و ليكن للتوكل أحوال يصح الاتصاف بها بها يسمى توكلا و بلغني عن واحد من أهل طريق اللّٰه أنه قال بما أشرنا إليه في هذه المسألة متنا و ما شممنا لهذا التوكل رائحة لأنه يطلب سريانه في الكل للافتقار الطبيعي الذي فيه و التوكل مقام لا يتبعض إلا بالمجاز و نحن أهل حقائق فلو صح في وجه كما يزعم هذا المدعي لصح في جميع الوجوه

[درجات التوكل عند العارفين]

و له الدعوى و صاحبه مسئول و له الكشف و درجاته عند العارفين أربعمائة و سبع و ثمانون و درجات الملاميين فيه أربعمائة و ست و خمسون و له نسب إلى العالم كله من ملك و ملكوت و جبروت

(الباب التاسع عشر و مائة في ترك التوكل)



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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