الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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التي ظهر عنها الهواء الذي يمسك الماء و يمسك عليه الجرية و الحملة و الحافين

[ظلمة الغيب]

اعلم أن هذه الظلمة هي ظلمة الغيب و لهذا سميت ظلمة أي لا يظهر ما فيها فكلما برز من الغيب ظهر لنا فنحن تنظر إلى ما ظهر من صور العالم في مرآة الغيب و لا نعرف أن ذلك في مرآة غيب و هي للحق كالمرآة فإذا تجلى الحق لها انطبع فيها ما في العلم الإلهي من صور العالم و أعيانه و ما زال الحق متجليا لها فما زالت صور العالم في الغيب و كل ما ظهر لمن وجد من العالم فإنما هو ما يقابله في نظره في هذه المرآة التي هي الغيب فلو جاز أن يعلم جميع ما في علم الحق و ذلك لا يجوز فلا يجوز أن يرى من صور العالم في هذه المرآة إلا ما تراءى له منها فكان مما رآه فيها صورة العرش الذي استوى الرحمن عليه و هو سرير ذو أركان أربعة و وجوه أربعة هي قوائمه الأصلية التي لو استقبل بها لثبت عليه إلا أنه في كل وجه من الوجوه الأربعة التي له قوائم كثيرة على السواء في كل وجه معلومة عندنا إعدادها زائدة على القواعد الأربعة و جعله مجوفا محيطا بجميع ما يحوي عليه من كرسي و أفلاك و جنات و سماوات و أركان و مولدات فلما أوجده استوى عليه الرحمن واحد الكلمة لا مقابل لها فهو رحمة كله ليس فيه ما يقابل الرحمة و هو صورة في العماء فالعقل أبوه و النفس أمه و لذلك استوى عليه الرحمن فإن الأبوين لا ينظران أبدا لولدهما إلا بالرحمة و اللّٰه أرحم الراحمين و النفس و العقل موجودان كريمان على اللّٰه محبوبان لله فما استوى على العرش إلا بما تقر به أعين الأبوين و هو الرحمن فعلمنا أنه ما يصدر عنه إلا ما فيه رحمة و إن وقع ببعض العالم غصص فذلك لرحمة فيه لو لا ما جرعه إياها اقتضى ذلك مزاج الطبع و مخالفة الغرض النفسي فهو كالدواء الكرية الطعم الغير المستلذ و فيه رحمة للذي يشربه و يستعمله و إن كرهه ف‌ ﴿بٰاطِنُهُ فِيهِ الرَّحْمَةُ وَ ظٰاهِرُهُ مِنْ قِبَلِهِ الْعَذٰابُ﴾ [الحديد:13] و ما استوى عليه الرحمن تعالى إلا بعد ما خلق الأرض ﴿وَ قَدَّرَ فِيهٰا أَقْوٰاتَهٰا﴾ [فصلت:10] و خلق السموات ﴿وَ أَوْحىٰ فِي كُلِّ سَمٰاءٍ أَمْرَهٰا﴾ [فصلت:12] و فرغ من خلق هذه الأمور كلها و رتب الأركان ترتيبا يقبل الاستحالات لظهور التكوين و التنقل من حال إلى حال و بعد هذا ﴿اِسْتَوىٰ عَلَى الْعَرْشِ﴾ [الأعراف:54] قال تعالى ﴿فَسْئَلْ بِهِ خَبِيراً﴾ الضمير في قوله به يعود على الاستواء أي فاسأل بالاستواء خبيرا يعني كل من حصل له ذلك ذوقا كأمثالنا فإن أهل اللّٰه ما علموا الذي علموه إلا ذوقا ما هو عن فكر و لا عن تدبر فهو تعالى النازل الذي لا يفارق المنزل و لا النزول فهو مع كل شيء بحسب حال ذلك الشيء و في ليلة تقييدي هذا الوجه أراني الحق في واقعتي رجلا ربع القامة فيه شقرة فقعد بين يدي و هو ساكت فقال لي الحق هذا عبد من عبادنا أفده ليكون هذا في ميزانك فقلت له من هو فقال لي هذا أبو العباس بن جودي من ساكني البشرات و أنا ذا ذاك في دمشق فقلت له يا رب و كيف يستفيد مني و أين أنا منه فقال لي قل فإنه يستفيد منك فكما أريتك إياه أريته إياك فهو الآن يراك كما تراه فخاطبه يسمع منك و يقول هو مثل ما تقول أنت يقول أريت رجلا بالشام يقال له محمد بن العربي و سماني أفادني أمرا لم يكن عندي فهو أستاذي فقلت له يا أبا العباس ما الأمر قال كنت أجهد في الطلب و أنصب و ابذل جهدي فلما كشف لي علمت أني مطلوب فاسترحت من ذلك الكد فقلت له يا أخي من كان خيرا منك و أوصل بالحق و أتم في الشهود و أكشف للأمر قيل له و قل رب زدني علما فأين الراحة في دار التكليف ما فهمت ما قيل لك قولك علمت أني مطلوب و لم تدر بما ذا أنعم أنت مطلوب بما كنت عليه من الاجتهاد و الجد ما هذه الدار دار راحة فإذا فرغت من أمر أنت فيه فانصب في أمر يأتيك في كل نفس فأين الفراغ فشكرني على ما ذكرته به فانظر عناية اللّٰه بنا و به ثم نرجع فنقول ثم إنه تعالى خلق ملائكة من أنوار العرش يحفون بالعرش و جعل فيما خلق من الملائكة أربع حملة تحمل العرش من الأربع القوائم الذي هو العرش عليها و كل قائمة مشتركة بين كل وجهين إلى حد كل نصف وجه و جعل أركانه متفاضلة في الرتبة فأنزلني في أفضلها و جعلني من جملة حملته فإن اللّٰه و إن خلق ملائكة يحملون العرش فإن له من الصنف الإنساني أيضا صورا تحمل العرش الذي هو مستوي الرحمن أنا منهم و القائمة التي هي أفضل قوائمه هي لنا و هي خزانة الرحمة فجعلني رحيما مطلقا مع علمي بالشدائد و لكن علمت أنه ما ثم شدة إلا و فيها رخاوة و لا عذاب إلا و فيه رحمة و لا قبض إلا و فيه بسط و لا ضيق إلا و فيه سعة فعلمت الأمرين و القائمة التي على يميني قائمة رحمة أيضا لكن ما فيها علم شدة فينقص حاملها في الدرجة عن حامل


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