الفتوحات المكية

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ثم لتعلم يا ولي أن اللّٰه لما خلق العالم و ملأ به الخلأ لم يبق في العالم جوهر يزيد و لا ينقص فهو بالجوهر واحد غير إن هذا الجوهر الذي قد ملأ الخلأ لا يزال الحق تعالى فيه خلاقا على الدوام بما يفتح فيه من الإشكال و يلطف فيه من الكثائف و يكثف فيه من اللطائف و يظهر فيه من الصور و يحدث فيه من الأعراض من أكوان و ألوان و يميز كل صورة فيه من الكثائف بما يوجده فيها من الصفات و على الصورة التي تفتح فيه تقع الحدود الذاتية و الرسمية و فيه تظهر أحكام النسب و الإضافات فما أحدث اللّٰه بعد ذلك جوهرا لكن يحدث فيه فإذا علمت هذا فاعلم من تقع عليه العين و ما هي عليه العين و ما تسمعه الأذن و ما هي الأذن و ما يصوت به اللسان و ما هو الصوت و ما نلمسه الجوارح و ما هي الجارحة و ما يذوق طعمه الحنك و ما هو الحنك و ما يشمه الأنف و ما هو الأنف و ما يدركه العقل و ما هو العقل و ما هو السمع و البصر و الشم و الطعم و اللمس و الحس و ما هو المتخيل و المتخيل و الخيال و ما هو التفكر و المتفكر و الفكر و المتفكر فيه و ما هو المصور و المصور و الصورة و الذاكر و الذكر و المذكور و الوهم و المتوهم و التوهم و المتوهم فيه و الحافظ و الحفظ و المحفوظ و ما هو المعقول فما يحصل لك إلا علم بأعراض و نسب و إضافات في عين واحدة هي الواحدة و الكثيرة و عليها تنطلق الأسماء كلها بحسب ما أحدث اللّٰه فيها مما ذكرناه و هي بالذات عين هذا الجوهر الذي ملأ الخلأ و قابل لكل ما ذكرناه و فيه يظهر الجوهر الصوري و العرض و الزمان و المكان و هذه أمهات الوجود ليس غيرها و ما زاد عليها فإنه مركب منها من فاعل و منفعل و إضافة و وضع و عدد و الكيف و من هنا يعرف هل تقوم المعاني بالمعاني أو الجوهر القابل للمعنى الذي يظن أن المعنى الآخر قائم به إنما هو قائم بالجوهر الذي قام به المعنى الموصوف مثل إشراق السواد فتقول سواد مشرق أو علم حسن أو خلق كريم أو حمرة في بياض مشربة به فإذا علمت هذا علمت من أنت و ما هو الحق الذي جاد عليك بما ذكرناه كله و أشباهه و علمت أنه لا يمكن أن يماثله شيء من خلقه مع معقولية المناسبة التي ربطت وجودك بوجوده و عينك بعينه كما ربط وجود علمك به بعلمك بك في



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