الفتوحات المكية

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«أ لا ترى نبيه الصادق في أهل القليب كيف قال ما أنتم بأسمع منهم حين خاطبهم» ﴿فَهَلْ وَجَدْتُمْ مٰا وَعَدَ رَبُّكُمْ حَقًّا﴾ [الأعراف:44] و كان قد جيفوا فما من أحد من المخلوقات إلا و هو يسمع و لكن فطروا على منع توصيل ما يعلمون و يسمعون و هذه الحياة التي تظهر لا عين الخلق عند خرق العوائد في إحياء الموتى كبقرة موسى و غيرها فالاسم الظاهر هو العالم إن تحققته فإنه للحق بمنزلة الجسم للروح المدبرة و الاسم الباطن لما خفي عن الموجودات في نسبة الحياة لأنفسهم و بالمجموع يكون الإنسان إذ حده حيوان ناطق فالحيوانية صورته الظاهرة فإن الحيوانية مطابقة في الدلالة للجسم المتغذي الحساس إلا أنها أخصر فرجحوها في عالم العبارة للاختصار لأنها تساويها في الدلالة و هو ناطق من حيث معناه و ليس معناه سوى ما ذكرناه فالعالم كله عندنا الذي هو عبارة عن كل ما سوى اللّٰه حيوان ناطق لكن تختلف أجسامه و أغذيته و حسه فهو الظاهر بالصورة الحيوانية و هو الباطن بالحياة الذاتية الكائنة عن التجلي الإلهي الدائم الوجود فما في الوجود إلا اللّٰه تعالى و أسماؤه و أفعاله فهو الأول من الاسم الظاهر و هو الآخر من الاسم الباطن فالوجود كله حق ما فيه شيء من الباطل إذ كان المفهوم من إطلاق لفظ الباطل عدما ما فيما ادعى صاحبه أنه وجود فافهم و لو لم يكن الأمر كذلك لانفرد الخلق بالفعل و لم يكن الاقتدار الإلهي يعم جميع الممكنات بل كانت الإمكانات تزول عنه فسبحان الظاهر الذي لا يخفى و سبحان الخفي الذي لا يظهر حجب الخلق به عن معرفته و أعماهم بشدة ظهوره فهم منكرون مقرون مترددون حائرون مصيبون مخطئون و الحمد لله الذي من علينا بمثل هذه المشاهد و جلا لأبصارنا هذه الحقائق فلم تقع لنا عين إلا عليه و لا كان منا استناد إلا إليه



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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