الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

[من كان في هذه أعمى فهو في الآخرة أعمى]

و من ذلك ﴿مَنْ كٰانَ فِي هٰذِهِ أَعْمىٰ فَهُوَ فِي الْآخِرَةِ أَعْمىٰ﴾ [الإسراء:72] قال كما تكون اليوم كذلك تكون غدا فاجهد أن تكون هنا ممن أبصر الأمور على ما هي عليه دليلك على ذلك أن الذي خلقه اللّٰه أعمى و هو المسمى بالأكمه إذا نام لا يرى في النوم كما لا يرى في اليقظة و الأعمى إذا نام أعمى استيقظ أعمى و النوم موت أصغر فهو عين الموت من حيث إن الحضرة التي ينتقل إليها النائم هي بعينها التي ينتقل إليها الميت سواء و اليقظة بعد النوم كالبعث بعد الموت ﴿وَ مَنْ كٰانَ فِي هٰذِهِ أَعْمىٰ فَهُوَ فِي الْآخِرَةِ أَعْمىٰ وَ أَضَلُّ سَبِيلاً﴾ [الإسراء:72] أي أشد عمى و هذه أخوف آية عند العارف إلا إن ثم شيئا أنبهك عليه و هو أنه لو كان هنا أعمى و مات أعمى لكان في الآخرة أعمى و لكن لا يكون أحد هنا أعمى قبل الانتقال و لو بنفس واحد و لكن الذي خلق أعمى لا من عمي بعد أن أبصر فإن الغطاء لا بد أن ينكشف فيبصر فما يموت الميت إلا بصيرا و عالما بما إليه بصير فيحشر على ذلك فافهم و من ذلك أمر فامتثل و نهي فعدل قال العبد طائع في جميع حركاته و سكناته فإنه قابل كل ما يوجده الحق فيه من التكوين من حركة و سكون في الظاهر و الباطن فالذي يخلق فيه إذا أمر بالتكوين فيه امتثل أمر ربه و إذا أراد أمرا ما و نهي عنه عدل عن إرادته إلى ما كون فيه فإن كون فيه ما يكون حكمه المخالفة لما أمره الشارع و نهاه عنه نسبت إليه المخالفة في عين الموافقة و هي نكتة غريبة لا يشعر بها فإن قبول المخالفة موافقة و من كان هذا مشهده لا يشقى لا في الدنيا و لا في الآخرة فلا أطوع من الخلق لا و أمر الحق أي لقبول ما أمر الحق بتكوينه فيه



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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