الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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و ما كل من فهم الكلام فهم عن المتكلم ما أراد به على التعيين إما كل الوجوه أو بعضها فقد نبهتك على أمر إذا تعملت في تحصيله من اللّٰه حصلت على الخير الكثير و أوتيت الحكمة جعلنا اللّٰه ممن رزق الفهم عن اللّٰه فنزول القرآن على القلب بهذا الفهم الخاص هي تلاوة الحق على العبد و الفهم عنه فيه تلاوة العبد على الحق و تلاوة العبد على الحق عرض الفهم عنه ليعلم أنه على بصيرة في ذلك بتقرير الحق إياه عليه ثم يتلوه باللسان على غيره بطريق التعليم أو يذكره لنفسه لاكتساب الأجر و تجديد خلق فهم آخر لأن العبد المنور البصيرة الذي هو ﴿عَلىٰ نُورٍ مِنْ رَبِّهِ﴾ [الزمر:22] له في كل تلاوة فهم في تلك الآية لم يكن له ذلك الفهم في التلاوة التي قبلها و لا يكون في التلاوة التي بعدها و هو الذي أجاب اللّٰه دعاءه في قوله ﴿رَبِّ زِدْنِي عِلْماً﴾ [ طه:114] فمن استوى فهمه في التلاوتين فهو مغبون و من كان له في كل تلاوة فهم فهو رابح مرحوم و من تلا من غير فهم فهو محروم فالآية عنده ثابتة محفوظة و الذي يتجدد له الفهم فيها عن اللّٰه في كل تلاوة و لا يكون ذلك إلا بإنزال فتارة يحدث إنزاله من الرب الذي ينظر إلى التالي خاصة لا من حضرة مطلق الربوبية و تارة يحدث إنزاله من الرحمن مطلقا لكون الرحمن له الاستواء على العرش المحيط مطلقا و له الرحمة التي وسعت كل شيء فلم يتقيد و الرب ليس كذلك فإنه ما ورد الرب في القرآن إلا مضافا إلى غائب أو مخاطب أو إلى جهة معينة أو إلى عين مخصوصة بالذكر أو معين بدعاء خاص لم يرد قط مطلقا مثل الرحمن و الاسم اللّٰه له حكم الرحمن و حكم الرب فورد مضافا و مطلقا مثل قوله ﴿قُلِ ادْعُوا اللّٰهَ أَوِ ادْعُوا الرَّحْمٰنَ﴾ [الإسراء:110] فورد مطلقا و مثل قوله ﴿وَ إِلٰهُكُمْ﴾ [البقرة:163] فورد مقيدا و لكن بلفظة إله لا بلفظ اللّٰه فمن راعى قصد التعريف لم يفرق بين اللّٰه و الإله و من راعى حفظ الاسم و حرمته حيث لم يتسم به أحد و تسمى بإله فرق بين اللفظتين و إذا فرق فيكون حكم لفظ اللّٰه لا يتقيد فإذا كان حدوثه في الإنزال على القلب من الرب ينزل مقيد أو لا بد فيكون عند ذلك قرآنا كريما أو قرآنا مجيدا أو قرآنا عظيما و يكون القلب النازل عليه بمثل ما نزل عليه من الصفة عرشا عظيما أو عرشا كريما أو عرشا مجيدا و إذا حدث نزوله من الرحمن على القلب لم يتقيد بإضافة أمر خاص فكان القلب له عرشا غير مقيد بصفة خاصة بل له مجموع الصفات و الأسماء كما إن الرحمن له الأسماء الحسنى كذلك لهذا العرش النعوت العلى بمجموعها و إنما قلنا ذلك لأنه نزل علينا في الفهم عن اللّٰه في القرآن إطلاق القرآن في موضع و تقييده بالعظمة في موضع في قوله ﴿وَ لَقَدْ آتَيْنٰاكَ سَبْعاً مِنَ الْمَثٰانِي وَ الْقُرْآنَ الْعَظِيمَ﴾ [الحجر:87] و قيده في موضع آخر بالمجد فقال ﴿بَلْ هُوَ قُرْآنٌ مَجِيدٌ﴾ [البروج:21] و ﴿ق وَ الْقُرْآنِ الْمَجِيدِ﴾ [ق:1] و قيده في موضع آخر بصفة الكرم فقال تعالى ﴿إِنَّهُ لَقُرْآنٌ كَرِيمٌ﴾ [الواقعة:77] فلما أطلقه و قيده بهذه الصفات المعينة و جعل القلب مستواه خلع عليه نعوت القرآن من إطلاق و تقييد فوصف عرش القلب بالإطلاق في قوله ﴿ثُمَّ اسْتَوىٰ عَلَى الْعَرْشِ الرَّحْمٰنُ﴾ [الفرقان:59] و لم يقيد العرش بشيء من الصفات كما لم يصف الرحمن و لما قيد العرش قيده بما قيد به القرآن من الصفات فقال في العظمة ﴿رَبُّ الْعَرْشِ الْعَظِيمِ﴾ [التوبة:129] فأخذه من القرآن العظيم و قال في الكرم ﴿رَبُّ الْعَرْشِ الْكَرِيمِ﴾ [المؤمنون:116] فاستوى عليه القرآن الكريم و قال "ذو العرش المجيد" في قراءة من خفض و جعله نعتا للعرش فاستوى عليه القرآن المجيد فعظم العرش القلبي و مجد و كرم لعظم القرآن و كرمه و مجده فجاء بثلاثة نعوت للقرآن لما هو عليه الأمر في نفسه من التثليث و قد تقدم الكلام قبل هذا في غير هذا الباب في الاسم الفرد و أن له في المرتبة الأولى التي يظهر فيها وجود عينه مرتبة الثلاثة فهي أول الأفراد فلتنظر هناك رتبة التثليث في العالم و قد تقدم لنا شعر في التثليث في بعض منظومنا نشير به إلى هذا المعنى و هو في ديوان ترجمان الأشواق لنا و أول المقطوعة

بذي سلم و الدير من حاضري الحمى *** ظباء تريك الشمس في صور الدمي

فارقب أفلاكا و أخدم بيعة *** و أحرس روضا بالربيع منمنما

فوقتا اسمي راعي الظبي بالفلا *** و وقتا اسمي راهبا و منجما

إلى آخر القصيدة و شرحناها عند شرحنا لديوان ترجمان الأشواق و قد علمت يا ولي حدوث نزول القرآن المطلق على القلب من غير تقييد و إنه الذكر الذي آتاه من الرحمن و لكن ما أعرض عنه كما أعرض من تولى عن ذكره تعالى بل تلقاه بالقبول و الترحيب فقال له أهلا و سهلا و مرحبا فرد بتأهيل و سهل و مرحب و جعل قلبه عرشا له فاستوى


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