الفتوحات المكية

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[الفتى هو الواقف عند مراسم سيده]

فمن وقف عند حدود سيده و امتثل مراسيمه و لم يخالفه في شيء مما جاءه به على حد ما رسم له من غير زيادة بقياس أو رأى و لا نقصان بتأويل فعامل جنسه من الناس بما أمر أن يعاملهم به من مؤمن و كافر و عاص و منافق و ما ثم إلا هؤلاء الأصناف الأربعة و كل صنف من هؤلاء على طبقات فالمؤمن منه طائع و عاص و ولي و نبي و رسول و ملك و حيوان و نبات و معدن و الكافر منه مشرك و غير مشرك و المنافق منه ينقص في الظاهر عن درك الكافر فإن المنافق له الدرك الأسفل من النار و الكافر له الأعلى و الأسفل و أما العاصي فينقص في الظاهر عن درجة المؤمن المطيع بقدر معصيته فهذا الواقف عند مراسم سيده هو الفتى فكل إنسان لا بد أن يكون جليسا لأكبر منه أو أصغر منه أو مكافئا له إما في السن و إما في الرتبة أو فيهما فالفتى من وقر الكبير في العلم أو في السن و الفتى من رحم الصغير في العلم أو في السن و الفتى من آثر المكافئ في السن أو في العلم و لست أعني بقولي في العلم إلا المرتبة خاصة فأتينا بالعلم لشرفه فإن الملك قد يكون صغيرا في السن صغيرا في العلم و يكون شخص من رعيته كبيرا في السن كبيرا في العلم فإن عرف الملك قدر ما رسم له الحق في شرعه من توقير الكبير و شرف العلم عامله الملك بذلك و إن لم يفعل فيكون الملك سيئ الملكة فينبغي للفتى أن يعرف شرف المرتبة التي هي السلطنة و أنه نائب اللّٰه في عباده و خليفته في بلاده فيعامل من أقامه اللّٰه فيها و إن لم يجر الحق على يده بما ينبغي للمرتبة من السمع و الطاعة في المنشط و المكره على حد ما رسم له سيده و ما هو عليه مما أقام اللّٰه ذلك السلطان فيه من الأخلاق المحمودة أو المذمومة في الجور و العدل فينبغي للفتى أن يوفي السلطان حقه الذي أوجبه اللّٰه له عليه و لا يطلب منه حقه الذي جعله اللّٰه له قبل السلطان مما له أن يسامحه فيه إن منعه منه فتوة عليه و رحمة به و تعظيما لمنزلته إذ كان له أن يطلبه به يوم القيامة فالفتى من لا خصم له لأنه فيما عليه يؤديه و فيما له يتركه فليس له خصم فالفتى من لا تصدر منه حركة عبثا جملة واحدة و معنى هذا أن اللّٰه سمعه يقول



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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