الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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(وفق مخطوطة قونية)

و قد علمنا إن له الكمال و أنه المؤمن و أن العالم على صورته فقد ثبتت الأخوة بالصورة و الايمان لأنه ما ثم إلا قائل به مؤمن مصدق بوجوده فإنه ما ﴿مِنْ شَيْءٍ إِلاّٰ يُسَبِّحُ بِحَمْدِهِ﴾ [الإسراء:44] و ما من شيء إلا وسعته رحمته كما وسعه تسبيحه و حمده فهو الواسع لكل شيء و لهذا الاتساع هو لا يكرر شيئا في الوجود فإن الممكنات لا نهاية لها فأمثال توجد دنيا و آخرة على الدوام و أحوال تظهر و قد ﴿وَسِعَ كُرْسِيُّهُ﴾ [البقرة:255] و هو علمه ﴿اَلسَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضَ﴾ [البقرة:33] و وسعت رحمته علمه و السموات و الأرض و ما ثم الا سماء و أرض فإنه ما ثم إلا أعلى و أسفل ﴿سَبِّحِ اسْمَ رَبِّكَ الْأَعْلَى﴾ [الأعلى:1] فلا أعلى بعده و لو دليتم بحبل لهبط على اللّٰه فلا أنزل منه و ما بينهما فينزل إلى العلو الأدنى و هو السماء الأولى من جهتنا فإنها السماء الدنيا أي القريبة إلينا و ما نزل ليعذب و يشقى بل «يقول هل من داع فاستجيب له هل من سائل فأعطيه» و ما يخلو شيء من سؤال بخير في حق نفسه «هل من تائب فأتوب عليه» و ما من شيء إلا و يرجع في ضرورته إذا انقطعت به الأسباب إليه «هل من مستغفر فاغفر له» و ما من شيء إلا و هو مستغفر في أكثر أوقاته لمن هو إله و لم يقل إنه ينزل ليعذب عباده الذين نزل في حقهم و من كان هذا نعته و عذب فعذابه رحمة بالمعذب و تطهير كعذاب الدواء للعليل فيعذبه الطبيب رحمة به لا للتشفي ثم اتساع العطاء فإنه أعطى الوجود أولا و هو الخير الخالص ثم لم يزل يعطي ما يستحقه الموجود مما به قوامه و صلاحه كان ما كان فهو صلاح في حقه و لهذا أضاف العارف به المترجم عنه كلمة الحضرة و لسان المقام الإلهي «رسوله ﷺ الخير إليه فقال و الخير كله في يديك و نفي الشر أن يضاف إليه فقال و الشر ليس إليك»



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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