الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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لمن عقل و لما كانت الدرجة حاكمة اقتضى أن يكون الأرفع مسخرا اسم مفعول و تكون أبدا تلك الدرجة أنزل من درجة المسخر اسم فاعل و الحكم للأحوال كدرجة الملك في ذبه عن رعيته و قتاله عنهم و قيامه بمصالحهم و الدرجة تقتضي له ذلك و التسخير يعطيه النزول في الدرجة عن درجة المسخر له اسم مفعول قال اللّٰه عز و جل ﴿وَ رَفَعْنٰا بَعْضَهُمْ فَوْقَ بَعْضٍ دَرَجٰاتٍ لِيَتَّخِذَ بَعْضُهُمْ بَعْضاً سُخْرِيًّا﴾ [الزخرف:32] فافهم ثم إنه أمر عباده و نهاهم كما أمر عباده أيضا أن يامروه و ينهوه فقال لهم قولوا اغفر لنا و ارحمنا في مثل الأمر و يسمى دعاء و رغبة و في مثل النهي ﴿لاٰ تُؤٰاخِذْنٰا إِنْ نَسِينٰا أَوْ أَخْطَأْنٰا﴾ [البقرة:286] ﴿لاٰ تَحْمِلْ عَلَيْنٰا إِصْراً﴾ [البقرة:286] ﴿لاٰ تُحَمِّلْنٰا مٰا لاٰ طٰاقَةَ لَنٰا بِهِ﴾ [البقرة:286] و أمر اللّٰه أن نقول ﴿أَوْفُوا بِالْعُقُودِ﴾ [المائدة:1] ﴿أَوْفُوا بِعَهْدِ اللّٰهِ إِذٰا عٰاهَدْتُمْ﴾ [النحل:91] و النهي ﴿لاٰ تَنْقُضُوا الْأَيْمٰانَ بَعْدَ تَوْكِيدِهٰا﴾ [النحل:91] ﴿لاٰ تُخْسِرُوا الْمِيزٰانَ﴾ [الرحمن:9] و أمثال ذلك فنظرنا في السبب الذي أوجب هذا من اللّٰه أن يكون مأمورا منهيا على عزته و جبروته و من العبد على ذله و افتقاره فوجدناه حكم الدرجات بما تقتضيه و الدرجة أيضا هي التي جعلت هذا الأمر و النهي في حق اللّٰه يسمى أمر أو نهيا و في حق العبد يسمى دعاء و رغبة فأقام الحق نفسه بصورة ما أقام فيه عباده بعضهم مع بعض و قوله ﴿رَفِيعُ الدَّرَجٰاتِ﴾ [غافر:15] إنما ذلك على خلقه ثم أنزل نفسه معهم في القيام بمصالحهم و بما كسبوا قال تعالى ﴿أَ فَمَنْ هُوَ قٰائِمٌ عَلىٰ كُلِّ نَفْسٍ بِمٰا كَسَبَتْ﴾



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