الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 9108 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

المأمور به فذلك هو الثبوت مع اللّٰه عند نفوذ الحكم الإلهي فيه أي حكم كان من بلاء أو عافية فإن الفرح بنيل الغرض يزيل صاحبه عن الثبوت أكثر من زوال صاحب البلاء فإن حركة الفرح تدهش و تكثر اضطراب صاحبه إلا أن يكون له قوة حال أكثر من وارد الفرح و أما الهم و الغم فإنه أقرب إلى الثبوت و السكون لمن حكم عليه به من فرح الواصل إلى غرضه فهو ذكر يعم الخير و الشر معا و هما حالان و الأحوال هي الحاكمة أبدا و المحكوم عليه لا بد أن يكون تحت قهر الحاكم لنفوذ حكمه فيه و هو الذي جعله يضطرب لأن مطلوب الإنسان بالطبع الخروج من الضيق إلى الانفساح و السعة و الضياء المشرق لما يراه من ظلمة الطبع و ضيقه فلا يصبر فقيل له اثبت للحكم فإنك لا تخلو عن نفوذ حكم فيك إما بما يسوءك أو بما يسرك فإن ساءك فتحرك إلينا في رفعه عنك و إن سرك فتحرك إلينا في إبقائه عليك و الشكر على ذلك فنزيدك ما يتضاعف به سرورك و لا يضعف فأنت رابح على كل حال و ما أمرناك بالصبر إلا ليكون الصبر عبادة واجبة فتجازي جزاء من أدى الواجب فتكون عبدا مضطرا مثنيا عليك بالصبر و الرضاء و لو تركناك على التخيير و صبرت لكنت عبدا مختارا أي ذا اختيار و لم تذق طعما لسيادتنا عليك فإن المختار يولينا على نفسه إذا شاء و يعزلنا إذا شاء و يخجلنا إذا شاء و لا يخجلنا إذا شاء فنحن في الاختيار بحكمه و في الاضطرار حاكمون عليه فانظر إلى رحمة اللّٰه بك حيث أمرك بالصبر لحكم ربك ثم زاد ﴿فَإِنَّكَ بِأَعْيُنِنٰا﴾ [الطور:48] أحق ما حكمنا عليك إلا بما هو الأصلح لك عندنا سواء سرك أم ساءك هذا قصده بقوله ﴿فَإِنَّكَ بِأَعْيُنِنٰا﴾ [الطور:48] أي ما أنت بحيث تجهله أو ننساه فكن أي عبد شئت بعد هذا فأنت لما قصدت ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!