الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

فكن لي إن تكن لي أنت كلي *** و إن لم فاعتبر فالجود جودي

لقد تبنا و ما خفنا عقابا *** و قد أعني المجيد عن المجيد

فقل للمنكرين صحيح قولي *** لقد غبتم عن إحسان المجيد

و ذكر بأمور أخبر عنها في المستقبل عند الانتقال إلى الدار الآخرة تقع بالعباد مما يسر وقوعها و مما لا يسر و مما يوافق الغرض و يلائم الطبع و مما لا يلائم الطبع و لا يوافق الغرض و مما يدل على الكمال و النقص فذكر بالرغبة في ذلك و الرهبة من ذلك و ذكر بنفسه لما علم تعالى أن إفراط القرب حجاب عظيم عن القرب و قد قال إنه أقرب إلينا من حبل الوريد : و حبل الوريد نعلم قربه و لا تراه أبصارنا كذلك قرب الحق منا نؤمن بقربه و لا تدركه أبصارنا : فلذلك ذكر بنفسه لا لبعده لأنه حفيظ و الحفظ يطلب القرب بلا شك فنحن بعينه و هو معنا حيثما كنا لا بل أينما كنا : و نستغفر اللّٰه من عثرات اللسان و إن كان من عند اللّٰه فالأدب أولى و لا سيما فيما ينسب إلى الجناب الإلهي لا ينبغي للأديب إن يتكل على المعنى بل الأدب في مراعاة الألفاظ فإنه تعالى لم يعدل إلى لفظ دون غيره سدى فلا نعدل عنه فإن العدول عنه إلى مثله في المعنى تحريف بغير فائدة و يقنع العدو من الكبراء بهذا القدر فهي مزلة قدم و مكر خفي و رعونة نفس و إظهار مرتبة دنية يتخيل مظهرها أنها زلفى و إنها رتبة أسنى و أعلى فلما ذكر بنفسه ذكر أنه إليه يرجع الأمر كله لنعلم أن المرجع إليه فلا نقوم في شيء نحتاج فيه إلى الاعتذار عنه أو نستحي منه عند المرجع إليه و العبد الصحيح العبودية مع الموافقة لا يكون له إدلال فكيف مع المخالفة و لما ذكر بنفسه أحال عباده على أنفسهم و «قال لهم إن عرفتم نفوسكم عرفتموني» فمن الأدب أن نرجع بالنظر إلى نفسي فإن نظرت فيه و تركت نفسي فما تأدبت و إذا لم أكن أديبا لم نكن من أهل البساط فحرمت المشاهدة فحرمت العلم الذي يعطيه الشهود فإني إن نظرت فيه حتى أعرفه فربما أعرفه المعرفة التي تليق بهذا النظر و ليست المطلوبة فإن الذي طلب سبحانه أن نعرفه معرفة الارتباط به و تلك المعرفة التي عدل إليها من عدل لا تعطي الارتباط فلم تحصل الفائدة التي قصد اللّٰه بها عبده فالأديب يرجع بالنظر إلى نفسه عن أمر ربه فإذا عرف نفسه فكرا أو شهودا عرف ارتباطه بربه فعرف ربه تنزيها و تشبيها معرفة عقلية شرعية إلهية تامة كاملة غير ناقصة كما شاء الحق فإنه تعالى أبان لنا في هذه الإحالة عن أحسن الطرق و العلم به فتبين لنا أنه الحق و أنه على كل شيء شهيد : و قال في حق من عدل عن هذا النظر بالنظر فيه ابتداء ﴿أَلاٰ إِنَّهُمْ فِي مِرْيَةٍ مِنْ لِقٰاءِ رَبِّهِمْ﴾ [فصلت:54] فلو رجعوا إلى ما دعاهم إليه من النظر في نفوسهم لم يكونوا في مرية من لقاء ربهم فإنهم يجدونه في عين نفوسهم ثم تمم و قال



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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