الفتوحات المكية

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و لم يقل نعلم ﴿وَ مٰا جٰاءَنٰا مِنَ الْحَقِّ وَ نَطْمَعُ﴾ [المائدة:84] و ما قالوا نتحقق ﴿أَنْ يُدْخِلَنٰا رَبُّنٰا مَعَ الْقَوْمِ الصّٰالِحِينَ﴾ [المائدة:84] و هي الدرجة الرابعة ﴿فَأَثٰابَهُمُ اللّٰهُ بِمٰا قٰالُوا﴾ [المائدة:85] و لم يقل بما علموا ﴿جَنّٰاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهٰارُ خٰالِدِينَ فِيهٰا وَ ذٰلِكَ جَزٰاءُ الْمُحْسِنِينَ﴾ [المائدة:85] و الجنات عند اللّٰه فلهذا قال ناظرة إلى ما عندي فإنه قال في حق طائفة آخرين ﴿وُجُوهٌ يَوْمَئِذٍ نٰاضِرَةٌ إِلىٰ رَبِّهٰا نٰاظِرَةٌ﴾ على إن تكون إلى حرف أداة غاية لا تكون اسم جمع النعمة فإن ذلك في اللفظ يحتمل و لهذا ما هي هذه الآية نص في الرؤية يوم القيامة و إذا كان الأمر هكذا فاعلم إن اللّٰه قد فرق بين العارفين و العلماء بما وصفهم به و ميز بعضهم عن بعض فالعلم صفته و المعرفة ليست صفته فالعالم إلهي و العارف رباني من حيث الاصطلاح و إن كان العلم و المعرفة و الفقه كله بمعنى واحد لكن يعقل بينهما تميز في الدلالة كما تميزوا في اللفظ فيقال في الحق إنه عالم و لا يقال فيه عارف و لا فقيه و تقال هذه الثلاثة الألقاب في الإنسان و أكمل الثناء تعالى بالعلم على من اختصه من عباده أكثر مما أثنى به على العارفين فعلمنا إن اختصاصه بمن شاركه في الصفة أعظم عنده لأنه يرى نفسه فيه فالعالم مرآة الحق و لا يكون العارف و لا الفقيه مرآة له تعالى و كل عالم عندنا لم تظهر عليه ثمرة علمه و لا حكم عليه علمه فليس بعالم و إنما هو ناقل و العلم يستصحب الرحمة بلا شك فإذا رأيت من يدعي العلم و لا يقول بشمول الرحمة فما هو صاحب علم فإن الرحمة تتقدم بين يدي العلم تطلب العبد ثم يتبعها العلم هذا هو علم الطريق الذي درج عليه أهل اللّٰه و خاصته و هو قوله ﴿آتَيْنٰاهُ رَحْمَةً مِنْ عِنْدِنٰا وَ عَلَّمْنٰاهُ مِنْ لَدُنّٰا عِلْماً﴾ [الكهف:65] و هذا هو علم الذوق لا علم النظر

[العلم و المعرفة]

و اعلم أن العارفين هم الموحدون و العلماء و إن كانوا موحدين فمن حيث هم عارفون إلا أن لهم علم النسب فهم يعلمون علم أحدية الكثرة و أحدية التمييز و ليس هذا لغيرهم و بتوحيد العلماء وحد اللّٰه نفسه إذ عرف خلقه بذلك و لما أراد اللّٰه سبحانه أن يصف نفسه لنا بما وصف به العارفين من حيث هم عارفون جاء بالعلم و المراد به المعرفة حتى لا يكون لا طلاق المعرفة عليه تعالى حكم في الظاهر فقال



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