الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿شَرَعَ لَكُمْ مِنَ الدِّينِ مٰا وَصّٰى بِهِ نُوحاً وَ الَّذِي أَوْحَيْنٰا إِلَيْكَ وَ مٰا وَصَّيْنٰا بِهِ إِبْرٰاهِيمَ وَ مُوسىٰ وَ عِيسىٰ أَنْ أَقِيمُوا الدِّينَ وَ لاٰ تَتَفَرَّقُوا فِيهِ كَبُرَ عَلَى الْمُشْرِكِينَ مٰا تَدْعُوهُمْ إِلَيْهِ﴾ [الشورى:13] من الوحدة فهو كثير بالأحكام فإن ﴿لِلّٰهِ الْأَسْمٰاءُ الْحُسْنىٰ﴾ [الأعراف:180] و كل اسم علامة على حقيقة معقولة ليست هي الأخرى و وجوه العالم في خروجه من العدم إلى الوجود كثيرة تطلب تلك الأسماء أعني المسميات و إن كانت العين واحدة كما إن العالم من حيث هو عالم واحد و هو كثير بالأحكام و الأشخاص ثم تلي على ﴿اَللّٰهُ يَجْتَبِي إِلَيْهِ مَنْ يَشٰاءُ وَ يَهْدِي إِلَيْهِ مَنْ يُنِيبُ﴾ [الشورى:13] و ما ذكر لشقي هنا نعتا و لا حالا بل ذكر الأمر بين اجتباء و هداية ثم قيل لي من علم الهداية و الاجتباء علم ما جاءت به الأنبياء و كلا الأمرين إليه فمن اجتباه إليه جاء به إليه و لم يكله إلى نفسه و من هداه إليه أبان له الطريق الموصلة إليه ليسعده و تركه و رأية ف‌ ﴿إِمّٰا شٰاكِراً وَ إِمّٰا كَفُوراً﴾ [الانسان:3] ﴿إِنّٰا هَدَيْنٰاهُ السَّبِيلَ﴾ [الانسان:3] و لما جاء تعالى في هذه الآية العامة و لم يذكر للشقاوة اسما و لا عينا و ذكر الاجتباء و الهداية و هو البيان هنا و جعل الأمرين إليه علمنا إن الحكم للرحمة التي ﴿وَسِعَتْ﴾ [الأعراف:156] ﴿كُلَّ شَيْءٍ﴾ [البقرة:20] و ما ذكر في المشرك إلا كون هذا الذي دعي إليه كبر عليه لأنه دعي من وجه واحد و هو يشهد لكثرة من وجوده الذي جعله الحق دليلا عليه في «قوله من عرف نفسه عرف ربه»



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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