الفتوحات المكية

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﴿وَ مٰا كٰانَ لِبَشَرٍ أَنْ يُكَلِّمَهُ اللّٰهُ إِلاّٰ وَحْياً أَوْ مِنْ وَرٰاءِ حِجٰابٍ﴾ [الشورى:51] و ما زال البشر عن حكم البشرية كمسألة موسى و الحجاب عين الصورة التي يناديه منها و ما يزول البشر عن بشريته و إن فنى عن شهودها فعين وجودها لا يزول و الحد يصحبها و إنما قلنا هذا لأني سمعت بعض الشيوخ يقول هذا حظ البشر فإذا زال عن بشريته كان حكمه حكما آخر فأبنت له رضي اللّٰه عنه إن الأمر ليس كما يظنه فلما تحقق ما ذكرناه رجع عن ذلك و قال ما كنت أظن إلا إن الأمر على ما قلته لم أجعل بالي من هذا فإنه تكلم في شرح الآية فغلط ما تكلم في ذلك عن ذوق الأمر و من هنا يقع الغلط و نحن نعلم أن الذي قاله اللّٰه حق كله و إنه لا يخالف الأذواق فلا بد أن يكون كلام الذائق مطابقا للاخبارات الإلهية حتى يقول من لا معرفة له بمقام الرجال إن هذا المتكلم يتكلم بما لا يخالف ما جاء به قرآن أو سنة إنما هو أخذه منهما و هو مفسر لهما و صاحب الذوق ما قال إلا ما ذاقه فمن المحال أن يخالف شيئا مما جاء عن اللّٰه لكن الأجنبي الذي لا ذوق له يقول هذا عن الذائق بل جماعة من أهل الطريق ممن لا ذوق لهم يتخيلون مثل هذا و يقولون إن فلانا يتكلم من حيثما ورد في الأخبار الإلهية ليس له مادة غيرها و ينكرون الذوق لأنهم ما عرفوه من نفوسهم مع كونهم يعتقدون في نفوسهم أنهم على طريق واحدة و كذلك هو الأمر أصحاب الأذواق هم على طريق واحدة بلا شك غير أن فيهم البصير و الأعمى و الأعشى فلا يقول واحد منهم إلا ما أعطاه حاله لا ما أعطاه الطريق و لا ما هو الطريق عليه في نفسه و لا سيما السلوك المعنوي فإن عمى القلوب أشد من عمى الأبصار فإن عمى القلوب يحول بينك و بين الحق و عمى البصر الذي لم ير قط صاحبه ليس يحول إلا بينك و بين الألوان خاصة ليس له إلا ذلك و هذا العمي من الحجب و كذلك الصمم و القفل و الكن و الغشاوة دون العمي في الحكم إلا أن تكون الغشاوة تعطي الظلمة فلا فرق بينها و بين العمي فإن خرجت عن حد الظلمة إلى حد السدفة فقد يكون حال صاحبها أحسن من حال صاحب الظلمة و من حال الأعمى قال بعضهم لمحمد ص ﴿وَ مِنْ بَيْنِنٰا وَ بَيْنِكَ حِجٰابٌ﴾ [فصلت:5]



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