الفتوحات المكية

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و أما حكم البعد عندنا فقد يكون على خلاف ما قرروه بعدا مع تقريرنا ما قرروه بعدا أنه بعدا بلا شك إلا إنا زدنا فيه أمورا أغفلتها الجماعة لا أنهم جهلوا ما نذكره إلا أنهم ما ذكروه في معرفة البعد و أدخلوه في باب القرب و ذلك أن القرب اجتماع و البعد افتراق و ما يقع به الاجتماع غير ما يقع به الافتراق فالبعد غير القرب فإذا اجتمع أمران في شيء ما فذلك غاية القرب لأن عين كل واحد منهما عين الآخر فيما وقع فيه الاجتماع فإذا تميز كل واحد من العينين عن صاحبه بنعت لا يكون عليه الآخر فقد تميز عنه و إذا تميز عنه فذلك البعد لأنه ليس عينه من حيث ما هو عليه مما وقع له به الافتراق و يظهر ذلك في حدود الأشياء و إذا وقع البعد اختلف الحكم و قد يكون البعد بنعت عرضي كالمكان و الزمان و الحد و المقدار و الأكوان و الألوان في حق من تطلب ذاته هذه النعوت فإذا عقل أمران لا اجتماع بين واحد منهما مع الآخر و افترقا من جميع الوجوه كلها فذلك غاية البعد فلا أبعد من العالم من اللّٰه لأنه ما ثم من حيث ذاته شيء يجمع بينهما و هذا موجود في قوله تعالى ﴿فَإِنَّ اللّٰهَ غَنِيٌّ عَنِ الْعٰالَمِينَ﴾ [آل عمران:97] و كان اللّٰه و لا شيء معه ثم ننزل في درجة البعد دون هذا فنقول العبد لا يكون سيدا لمن هو عبد له فلا شيء أبعد من العبد من سيده فالعبودية ليست بحال قربة و إنما يقرب العبد من سيده بعلمه أنه عبد له و علمه بأنه عبد له ما هو عين عبوديته فعبوديته تقتضي البعد عن السيد و علمه بها يقضي بالقرب من السيد قال اللّٰه لأبي يزيد البسطامي لما حار في القرب و ما عرف بما ذا يتقرب إليه فقال له الحق في سره يا أبا يزيد تقرب إلي بما ليس لي الذلة و الافتقار فنفى سبحانه عن نفسه هاتين الصفتين الذلة و الافتقار و ما نفاه عنه فإنه صفة بعد منه فمن قامت به تلك الصفة التي تقتضي البعد فهو بحيث هي و هي تقتضي البعد و قال أبو يزيد لربه في وقت آخر بم أتقرب إليك فقال له الحق اترك نفسك و تعال و إذا ترك نفسه فقد ترك حكم عبوديته لما كانت العبودية عين البعد من السيادة فالعبد بعيد من السيد فطلب منه في الذلة و الافتقار القرب بالعبودية و طلب منه في ترك النفس القرب بالتخلق بأخلاق اللّٰه و هو ما يكون به الاجتماع فالتجلي في غير مادة تجلى البعد و في المواد تجلى القرب و أما البعد من الأسماء الإلهية فكل اسم لا بكون العبد تحت حكمه في الوقت

[ظهور الأسماء الإلهية من العبد]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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