الفتوحات المكية

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﴿وَ لٰكِنَّ أَكْثَرَ النّٰاسِ لاٰ يَعْلَمُونَ يَعْلَمُونَ ظٰاهِراً مِنَ الْحَيٰاةِ الدُّنْيٰا وَ هُمْ عَنِ الْآخِرَةِ هُمْ غٰافِلُونَ﴾ فنحن في ارتقاء دائم و مزيد علم دنيا و برزخا و آخرة و الآلات مصاحبة لا تنفك في هذه المنازل و المواطن و الحالات عن هذه اللطيفة الإنسانية ثم إن الشقاء لهذه اللطيفة أمر عارض يعرض لها كما يعرض المرض في الدنيا لها لفساد هذه الأخلاط بزيادة أو نقص فإذا زيد في الناقص أو نقص من الزائد و حصل الاعتدال زال المرض و ظهرت الصحة كذلك ما يطرأ عليها في الآخرة من الشقاء ثم المال إلى السعادة و هي استقامة النشأة في أي دار كان من جنة أو نار إذ قد ثبت أنه لكل واحد من الدارين ملؤها فالله يجعلنا ممن حفظت عليه صحة مزاج معارفه و علومه فهذا طرف من حقيقة مسمى اللطيفة الإنسانية بل كل موجود من الأجسام له لطيفة روحانية إلهية تنظر إليه من حيث صورته لا بد من ذلك و فساد الصورة و الهيئة موت حيث كان و أما اصطلاحهم اللطيفة على المعنى الآخر الذي هو كل إشارة تلوح في الفهم لا تسعها العبارة فاعلم إن أهل اللّٰه قد جعلوا الإشارة نداء على رأس البعد و بوحا بعين العلة و لكن في التقسيم في الإشارات يظهر فرقان و ذلك أن الإشارة التي هي نداء على رأس البعد فهو حمل ما لا تبلغه العبارة كما إن الإشارة للذي لا يبلغه الصوت لبعد المسافة و هو ذو بصر فيشار إليه بما يراد منه فيفهم فهذا معنى قولهم نداء على رأس البعد فكل ما لا تسعه عبارة من العلوم فهو بمنزلة من لم يبلغه الصوت فهو بعيد عن المشير و ليس ببعيد عما يراد منه فإن الإشارة قد أفهمته ما يفهمه الكلام أو يبلغه الصوت و قد علمت قطعا أن المشير إذا كان الحق فإنه بعيد عن الحد الذي يتميز به العبد فهذا بعد حقيقي لا بد منه و لا يكون الأمر إلا هكذا فلا بد من الإشارة و هي اللطيفة فإنه معنى لطيف لا يشعر به ثم إنه و إن لم يكن بعد فهو بوح بعين العلة و ذلك أن الأصم يكون قريبا من المتكلم و لكن قربه لا تقع به الفائدة لأنه لا يصل إليه الصوت لعلة الصمم فيشير إليه مع القرب كما يقول الحق على لسان عبده سمع اللّٰه لمن حمده فهذا غاية القرب مع وجود العلة و ظهورها و أكثر من هذا القرب ما يكون فإنه هو مع



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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