الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4739 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

«خير النبي ﷺ بين البقاء في الدنيا و الانتقال إلى الأخرى فقال الرفيق الأعلى» فإنه في حال الدنيا في مرافقة أدنى و «ورد في الخبر أنه من أحب لقاء اللّٰه يعني بالموت أحب اللّٰه لقاءه و من كره لقاء اللّٰه كره اللّٰه لقاءه» فلقيه في الموت بما يكرهه و هو أن حجبه عنه و تجلى لمن أحب لقاه من عباده و لقاء الحق بالموت له طعم لا يكون في لقائه بالحياة الدنيا فنسبة لقائنا له بالموت نسبة قوله ﴿سَنَفْرُغُ لَكُمْ أَيُّهَ الثَّقَلاٰنِ﴾ و الموت فينا فراغ لأرواحنا من تدبير أجسامها فأرادوا حب هذا المحب أن يحصل ذلك ذوقا و لا يكون ذلك إلا بالخروج من دار الدنيا بالموت لا بالحال و هو أن يفارق هذا الهيكل الذي وقعت له به هذه الألفة من حين ولد و ظهر به بل كان السبب في ظهوره ففرق الحق بينه و بين هذا الجسم لما ثبت من العلاقة بينهما و هو من حال الغيرة الإلهية على عبيده لحبه لهم فلا يريد أن يكون بينهم و بين غيره علاقة فخلق الموت و ابتلاهم به تمحيصا لدعواهم في محبته فإذا انقضى حكمه ذبحه يحيى عليه السّلام بين الجنة و النار فلا يموت أحد من أهل الدارين فهذا سبب رغبتهم في الخروج من الدنيا إلى لقاء المحبوب لأن الغيرة نصب و يحيي الموت بالذبح حياة خاصة كما حكمنا بعد الموت «فإن الناس نيام فإذا ماتوا انتبهوا»

منصة و مجلى نعت المحب بأنه متبرم بصحبة ما يحول بينه و بين لقاء
محبوبه

هذا النعت أعم من الأول في المحب فإن العارف ما يحول بينه و بين لقاء محبوبه إلا العدم و ما هو ثم و ليس الوجود سواه فهو شاهده في كل عين تراه فليس بين المحب و المحبوب إلا حجاب الخلق فيعلم أن ثم خالقا و مخلوقا فلم يقدر على رفع صحبة هذه الحقيقة فإنها عينه و الشيء لا يرتفع عن نفسه و نفسه تحول بينه و بين لقاء محبوبه فهو متبرم بنفسه لكونه مخلوقا و صحبته لنفسه ذاتية لا ترتفع أبدا فلا يزال متبرما أبدا فلهذا يتبرم لأنه يتخيل أنه إذا فارق هذا الهيكل فارق التركيب فيرجع بسيطا لا ثاني له فينفرد بأحديته فيضربها في أحدية الحق و هو اللقاء فيكون الحق الخارج بعد الضرب لا هو فهذا يجعله يتبرم و العارف المحب لا يتبرم من هذا لمعرفته بالأمر على ما هو عليه كما ذكرناه في رسالة الاتحاد



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!