الفتوحات المكية

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و العماء هو أول الأينيات و منه ظهرت الظروف المكانيات و المراتب فيمن لم يقبل المكان و قبل المكانة و منه ظهرت المحال القابلة للمعاني الجسمانية حسا و خيالا و هو موجود شريف الحق معناه و هو الحق المخلوق به كل موجود سوى اللّٰه و هو المعنى الذي ثبتت فيه و استقرت أعيان الممكنات و يقبل حقيقة الأين و ظرفية المكان و رتبة المكانة و اسم المحل و من عالم الأرض إلى هذا العماء ليس فيها من أسماء اللّٰه سوى أسماء الأفعال خاصة ليس لغيرها أثر في كون مما بينهما من العالم المعقول و المحسوس غير إن صاحب التابع الذي هو صاحب النظر لما تركه صاحبه بالسماء السابعة و رحل عنه امتدت منه رقيقة على غير معراج التابع ظهرت للتابع في الفلك المكوكب و فقدها في الجنة ثم ظهرت له في فلك البروج ثم فقدها أيضا في الكرسي و في العرش ثم ظهر له في مرتبة المقادير و في الجوهر المظلم ثم فقده في الطبيعة ثم ظهر له في النفس من جهة كونها نفسا لا من جهة كونها لوحا ثم ظهر له في العقل الإبداعي من كونه عقلا لا من كونه قلما ثم فارقه بعد ذلك فلم ير له عينا و من هذا العماء يبتدئ بالترقي و المعراج في أسماء التنزيه إلى أن يصل إلى الحضرة التي يشهد فيها إن التنزيه يحده و يشير إليه و يقيده و يستشرف على العالم بأسره المعنوي و الروحاني و الجسمي و الجسماني فلا يجد في مشهده ذلك ما ينبغي أن ينزه عنه من ظهر فيه و يرى ارتباطه به ارتباط المرتبة بصاحبها فلا يتمكن له التنزيه الذي كان يتخيله و لا يتمكن له التشبيه فإنه ليس ثم

بمن فما ثم إلا اللّٰه لا شيء غير *** و ما ثم إلا وحدة الوحدات

ثم فارق أسماء الأفعال و تسلمته أسماء التنزيه فرأى صاحبه صاحب النظر يوافقه إلى أن وصل إلى الحضرة التي لا تقبل التنزيه و لا التشبيه فيتنزه عن الحد بنفي التنزيه و عن المقدار بنفي التشبيه فيفقد رفيقه صاحب النظر هنالك ثم ينقلب يطلب ما منه خرج فسلك به الحق تعالى طريقا غير طريقه الأولى و هو طريق لا يتمكن أن ينقال و لا يعرفه إلا من شاهده ذوقا و رجع صاحبه على معراجه ذلك إذ لم يكن تابعا إلى أن وصل إلى جسده فاجتمع مع رفيقه فبادر من حينه صاحب النظر إلى الرسول إن كان حاضرا أو لوارثه فيبايعه بيعة الايمان و الرضوان ﴿عَلىٰ بَيِّنَةٍ مِنْ رَبِّهِ﴾ [هود:17]



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