الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

«قد ورد الخبر أنه من قتل شخصا و لم يقتل به فأمره إلى اللّٰه إن شاء عفا عنه و إن شاء عذبه» و «قال فيمن قتل نفسه بادرني عبدي بنفسه حرمت عليه الجنة» و لم يجعله في المشيئة و لا جعل لعمله كفارة في ماله فعلمنا أن حق النفس في حقه آكد عليه و أعظم في الحرمة من حق غيره و الفتوة العمل في حق الغير إيثارا على حق نفسه و قد قدم الشارع في غير ما موضع أن حق نفس الإنسان عليه أوجب من حق الغير عند اللّٰه و الفتى هو الماشي في الأمور بأمر غيره لا بأمر نفسه و في حق غيره لا في حق نفسه لكن بأمر ربه فهما طرفان أحدهما يسوغ و هو المشي في الأمور عن أمر اللّٰه و الشطر الآخر لا يسوغ في كل موطن

[النجاة من ترك الوقوع بين متناقضات الفتوة و غيرها من متناقضات الحياة]

فالعارف إذا أقيم في مقام أداء الحقوق إلى أصحابها و تعينت الحقوق عليه لأصحابها لم يتمكن له أن يتفتى مطلقا فيؤثر الغير على الإطلاق فإنه بأداء حق نفسه يبدأ و إذا بدأ به قدح في شرط الفتوة و إذا لم يبدأ به قدح في الطرف الآخر من الفتوة الذي هو امتثال أمر اللّٰه فيبقى هالكا و التخليص من ذلك أن يقول أنا مؤمن و اللّٰه تعالى ﴿اِشْتَرىٰ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ أَنْفُسَهُمْ﴾ [التوبة:111] فنفسي للحق لا لي فابدأ بها و أوثرها على غيرها من النفوس من كونها لله لا لي فلهذا تكمل الفتوة في تركها المعلوم عند المحجوبين عن إدراك حقائق الأمور فإن مالكها أمرني بتقديمها في أداء الحقوق

[حكاية صاحب السفرة و التدقيق في شأن الفتوة التي هي شرف الفطرة]

و أما حكاية صاحب السفرة و هي أن شيخا من المشايخ جاءه أضياف فأمر تلميذه أن يأتيه بسفرة الطعام فأبطأ عليه فسأله ما أبطأ بك فقال وجدت النمل على السفرة فلم أر من الفتوة إن أخرجهم فتربصت حتى خرجوا من نفوسهم فقال له الشيخ لقد دققت فجعل هذا الفعل من تدقيق باب الفتوة و نعم ما قال و نعم ما فاته فلو قال أحد لهذا الشيخ كيف شهد له بالتدقيق في الفتوة على جهة المدح و الأضياف متالمون بالتأخير و الانتظار و مراعاة الأضياف أولى من مراعاة النمل فإن قال الشيخ النمل أقرب إلى اللّٰه من حيث طاعتهم لله من الإنسان لما يوجد فيه من المخالفة و كراهة بعض الأمور التي هي غير مستلذة قلنا و جلد الإنسان و جوارحه و شعره و بشره ناطق بتسبيح اللّٰه تعالى كالنمل و لهذا تشهد يوم القيامة على النفس الناطقة الكافرة الجاحدة قال تعالى



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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